रविवार, 31 अगस्त 2008

ललितलवंगलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे। मधुकरनिकरकरम्बितकोकिलकूजितकुञ्ज कुटीरे॥

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आपने आनंदमठ तो ज़रूर पढ़ा होगा? नहीं पढ़ा? तो शायद फ़िल्म देखी होगी? कम से कम वंदे मातरम् तो ज़रूर पढ़ा-सुना होगा। मुझे दोनों ही सौभाग्य प्राप्त हुए हैं। यहां संगीत की बात होती है इसलिये उपन्यास को अभी भूल जाते हैं और ज़रा इस उपन्यास पर बनी फ़िल्म और इस फ़िल्म के एक गाने की ओर मुखातिब होते हैं।
1952 में बनी इस फ़िल्म में लता और हेमंतदा का गाया वंदे मातरम् आज भी उतना ही ओजपूर्ण है जितना उस समय था। हैरान होता हूँ कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर इस गाने को बजाने की सुध किसी को क्यों नहीं रहती। खैर, इसे भी जाने दीजिये।
हेमेन गुप्ता की इस फ़िल्म में संगीत हेमंत कुमार ने दिया था। हेमंतदा ने वैसे बहुत ही गिनी चुनी फ़िल्मों के लिये संगीत दिया और गाया। इस मामले में वे बहुत चूज़ी थे। शायद इसीलिये उनका संगीत हमेशा एक समान प्रभाव छोड़ पाता था। इस फ़िल्म से लेकर 1969 में आई अनुपमा इसके सबूत हैं।
महाकवि जयदेव की गीत-गोविंद एक अनुकरणीय काव्य-रचना रही है। (राधा-कृष्ण की अवधारणा का स्रोत बहुत हद तक यही काव्य है)। आश्चर्य नहीं यदि यह रचना फ़िल्मों को भी प्रभावित कर पाई। मगर इस रचना के किसी भी अंश पर गीत बनाना सचमुच ही चुनौतीपूर्ण रहा होगा; हालांकि यह भी याद रखने योग्य तथ्य है कि संपूर्ण गीत-गोविंद में अष्टपदी गीत हैं जिनके लिये राग और ताल के निर्देश भी कवि द्वारा व्याख्यायित हैं; तो भी आधुनिक विधा फ़िल्मी-गीत थोड़ी सहज किस्म की विधा है, इसलिये ऐसी कठिन रचना के साथ न्याय कर पाना कठिन ही रहा होगा।
यहां हेमंतदा ने एक खूबसूरत प्रयोग गीता दत्त की आवाज़ के साथ किया है। गीता दत्त प्रत्येक पद की आखिरी पंक्तियां पार्श्व में गाती हैं जो धीरे-धीरे उठते हुए मुख्य स्वर बन जाता है। गीता दत्त जी की आवाज़ भक्ति रस से वैसे भी सराबोर ही लगती है।
हेमंतदा ने गीत-गोविंद के प्रारंभ में से वंदना का एक अंश गीत के लिये उठाया है। पूरा गीत-गोविंद ही इतना गेय है कि संस्कृत होने के बावजूद आप इसे आराम से सस्वर गा सकते हैं। मुझे पढ़ते-पढ़ते ही कुछेक अष्टपदियाँ याद हो गईं (मतलब समझ न आए वो बात और है)। नीचे लिखे दे रहा हूँ कोशिश कीजिये। इस वंदना में भगवान विष्णु के दस अवतारों की स्तुति की गई है (जिसमें एक भगवान बुद्ध भी हैं और कल्कि भी)। मगर इस गीत में कुछ ही रूपों को लिया गया है। जो गीत का हिस्सा हैं उन्हें बोल्ड कर रहा हूँ जिससे फ़ालो करने में आपको कठिनाई न हो।




हरे मुरारे! मधुकैटभारे! गोपाल, गोविंद मुकुंद प्यारे!

प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम्
विहितवहित्रचरित्रमखेदम्
केशव धृतमीनशरीर
जय जगदीश हरे।

क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे
धरणिधरणकिण्चक्रगरिष्ठे।
केशवधृतकच्छप रूप।
जय जगदीश हरे।

वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलंककलेव निमग्ना।
केशव! धृतसूकररूप
जय जगदीश हरे।

तव करकमलवरे नखमद् भुतश्रंगम्
दलितहिरणयकशिपुतनुभृंगम्।
केशव! धृतनरहरिरूप
जय जगदीश हरे।

छलयसि विक्रमणे बलिमद् भुतवामन
पदनखनीरजनितजनपावन।
केशव! धृत वामनरूप
जय जगदीश हरे।


क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापम्
स्नपयसि पयसि शमित भवतापम्।
केशव! धृतभृगुपतिरूप
जय जगदीश हरे।

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम्
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्।
केशव! धृतरामशरीर
जय जगदीश हरे।


वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभम्
हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम्।
केशव! धृतहलधररूप
जय जगदीश हरे।

निन्दसि यज्ञविधेरहहश्रुतिजातम्
सदयहृदयदर्शितपशुघातम्।
केशव! धृतबुद्धशरीर
जय जगदीश हरे।


म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम्।
धूमकेतुमिव किमपि करालम्।
केशव! धृतकल्किशरीर
जय जगदीश हरे।


श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम्
श्रृणु सुखदं शुभमं भवसारम्।
केशव! धृतदशविधरूप
जय जगदीश हरे।

शनिवार, 30 अगस्त 2008

फ़िर बेग़म अख़्तर की बारिश

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दो दिन पहले बेग़म अख़्तर की ग़ज़ल पर संजय भाई ने कहा कि उनका मालवा बारिश को तरस रहा है और कि ग़ज़ल सुनकर "मन तक बरस गए… आसमां में रुके बादल"। संजय भाई ने कहा तो नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं। सोचा क्यों न उनके मालवा को एक सावन का गीत अख़्तरीबाई की आवाज़ में सुना दूँ। शायद उमस कम हो जाए, शायद मन तर हो जाए।
जिस तरह बेग़म सावन से टूटकर गुहार लगा रही हैं वह कैसे न रह जाए? जब बड़े भाई शास्त्रीय संगीत सीख रहे थे एक किस्सा सुनाते थे कि एक बार बड़े ग़ुलाम अली खां समन्दर किनारे बैठकर गा रहे थे और उनकी तानों पर पानी उनके पैताने तक चढ़ आया था। क्या जाने संगीत देवों की वाणी हो।
साथ ही त्रिलोचन और मुक्तिबोध की क्रमश: दो कविताएँ, जो सांस्कृतिक गलियारों में सालों पहले मुफ़्त के दिनों में दोस्तों के साथ बांचा करते थे, मेरी मनमर्ज़ी की।





॥1॥
आओ इस आम के तले
यहाँ घास पर बैठें हम
जी चाही बात कुछ चले
कोई भी और कहीं से
बातों के टुकड़े जोड़ें
संझा की बेला है यह
चुन-चुनकर तिनके तोड़ें
चिन्ताओं के। समय फले।
आधा आकाश सामने
क्षितिज से यहाँ तक आभा
नारंगी की। सभी बने।
ऐसे ही दिन सहज ढले।

॥2॥
… यह सही है कि चिलचिला रहे फ़ासले,
तेज़ दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद-छाँह वहीं
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्त:करण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
जी की पुकार
जितनी अनन्य।

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

मलिका-ए-ग़ज़ल अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी

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अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी, जो बेग़म अख़्तर के नाम से ज़्यादा जानी जाती हैं, को ग़ज़लों में शास्त्रीय संगीत के सफलतापूर्वक प्रयोग करने का श्रेय जाता है। बरसों पहले जब ग़ज़लों को समझने-बूझने की कोशिशें चल रही थीं तो बेग़म अख़्तर की एक कैसेट सोतड़ू (राजेश) के पास से हाथ लगी। एक बार सुनने के बाद ही सिर भन्ना गया कि अमां ये क्या बला है। सिर-पैर कुछ समझ नहीं आया और अगले कुछ सालों तक दोबारा सुनने का इत्तेफ़ाक भी नहीं हुआ। अगले मौके पर जब सुना तो दंग रह गया (तबतक शायद समझ थोड़ी बेहतर हो गयी होगी)।
मलिका-ए-ग़ज़ल अकसर अपनी ग़ज़लें खुद ही कंपोज़ करती थीं। (वैसे मैंने नोटिस किया था कि मलिका पुख़राज ने भी अपनी कुछ बेहतरीन ग़ज़लें खुद ही कंपोज़ की थीं)। शायद अंतिम समय में बेग़म अख़्तर ने सुदर्शन फ़ाकिर की काफ़ी ग़ज़लें गाईं थीं। जितनी भी मैंने सुनीं मुझे सभी बेहद पसंद हैं; खासकर "कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया" और "ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया"। अफ़सोस कि mp3 में फ़िलहाल मेरे पास इनमें से कोई भी ग़ज़ल उपलब्द्ध नहीं है मगर जो है वह भी उतनी ही बेहतरीन है।


सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मुहब्बत का भरोसा भी नहीं
यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवान-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि फिराक़
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
ग़ज़ल के बाकी के शेर यहां:
ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुश्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज से उठता भी नहीं
बदगुमां होके न मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ऐ-बेजा भी नहीं
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज-ए-जिन्दा भी नहीं बौशाते सेहरा भी नहीं
सौदा - पागलपन, इश्क, तर्क-ए-मुहब्बत - प्रेमांत, यगान - अज़ीज़

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

बारिश के बीच गंगूबाई हंगल

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बरसात आती है तो मुझे दो गीत याद आते हैं। एक तो मुन्नी बेग़म का गाया "जब सावन रुत की पवन चली…" और खासतौर पर बेग़म अख़्तर की गाई ग़ज़ल "कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया…" बेहद याद आती है; खासकर वो शेर:
"हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब,
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया"

मैं शराब के लिये बरसात का मुंह नहीं ताकता। समझदारी करके स्टाक रखता हूँ। अंग्रेज़ों के लिये भारत की बारिश कुत्ते-बिल्ली बरसने जैसी होती है मगर अपने लिये तो सावन-भादो नवजीवन का प्रतीक है, एक पर्व है। सिर्फ़ झूले पड़ने का पर्व नहीं, संगीत का पर्व भी जहां सुर और साज़ बारिश की ताल पर थिरकते हैं और बारिश के लिये भी राग निर्धारित हैं। कल झमाझम बरसा है और आज भी आसार हैं। बंगलौर में तो अभी नवंबर तक मानसून रहेगा। ऐसे में अगर मिया की मल्हार सुना जाए तो मज़ा दुगना हो जाए और अगर गंगूबाई हंगल गा रही हों तो मज़े का अनुपात कई गुना बढ़ जाता है। कल से ही बालकनी में बैठकर यही कर रहा हूँ। छोटी सी तान है फ़िलहाल के लिये।

रविवार, 24 अगस्त 2008

पंडित भीमसेन जोशी की आवाज़ में एक भजन

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आज भजन पेश करने के पीछे यह औचित्य नहीं कि मैं चार दिन पहले ही पिता बना हूँ (और इसीलिये ग़ायब भी था) इसलिये भक्ति-भावना से भरकर ऐसा कर रहा होऊँ, यह भी नहीं कि मैं भक्त किस्म का प्राणी होऊँ।
कारण मात्र इतना है कि पंडित भीमसेन जोशी का यह मराठी भजन मुझे काफ़ी अपीलिंग लगा और लंबे अरसे से इसे सुनता आ रहा हूँ (बग़ैर समझे)। एक मराठी सहकर्मी से जब अर्थ की बाबत पूछा तो उसका जवाब और भी ज़्यादा उलझाने वाला था। उसके अनुसार इसमें श्रीराम के वनवास के बारे में कहा गया है। "क्या कहा गया है?" मैंने पूछा तो उसका जवाब था, "उनके वनवास के बारे में।"
"अरे वनवास के बारे में बताया जा रहा है।" उसने कहा।
मैंने पूछा, "वही तो। क्या बताया जा रहा है?"
"वनवास के बारे में।" उसके जवाब में कोई फेरबदल नहीं हुआ तो मुझे लगा पूछना व्यर्थ है। मतलब तो मुझे आज भी नहीं मालूम।
किस राग पर आधारित है या बंदिश कौनसी है इसका भी मैं पता नहीं लगा पाया। सच तो यह है कि जब पहली बार सुना था तो पता ही नहीं था कि भजन है मगर बंध गया था सुनकर। इसलिये मैं अपने को परे सरकाकर भजन को आगे कर देता हूँ। बस इतना और कि भजन समर्थ रामदास का है और संगीत राम फाटक का।



आरंभी वंदीन अयोध्येचा राजा ।
भक्ताचीया काजा पावत असे ॥१॥

पावत असे महासंकटी निर्वाणी ।
रामनाम वाणी उच्चारीत ॥२॥

उच्चारिता राम होय पाप चर ।
पुण्याचा निश्चय पुण्यभूमी ॥३॥

पुण्यभूमी पुण्यवंतासीं आठवे ।
पापीयानाठवे काही केल्या ॥४॥

काही केल्या तुझे मन पालटेना ।
दास म्हणे जन सावधान ॥५॥

सोमवार, 18 अगस्त 2008

दूसरे-तीसरे दशक के कॉमेडियन हार्मोनिस्ट्स

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कॉमेडियन हार्मोनिस्ट्स जर्मनी का दूसरे-तीसरे दशक का मशहूर ग्रुप रहा है, इतना मशहूर कि आप उनका शुमार पिछली सदी के सबसे सफ़ल म्यूज़िक ग्रुप्स में कर सकते हैं। मगर साथ ही यह भी सच है कि नाज़ियों के उत्थान के बाद लगभग 1934 के आसपास इस ग्रुप को ज़बर्दस्ती ख़त्म कर दिया गया और इसके बाद धीरे-धीरे लोग उनके बारे में भूलते गए। 1975 में एबेनहार्ड फ़ेश्नर द्वारा इस ग्रुप पर डॉक्युमेंटरी बनाए जाने तक यह ग्रुप लोगों के मानस पटल से उतरा ही रहा।
1997 में इस ग्रुप पर एक बेहतरीन फ़िल्म बनाई गई जिससे मुझे इस ग्रुप के बारे में पहली बार पता चला। मुझे इसे देखने का मौका तीन साल बाद मिला। मज़े की बात यह है कि फ़िल्म में ग्रुप के गाए गानों का ही प्रयोग किया गया है, उनकी रिकार्डिंग दोबारा नहीं की गई। फ़िल्म जर्मन में है मगर अमेरिका में भी लांच की गई थी और अन्य भाषाओं में भी डब की गई थी। यह ग्रुप अपने सफलता के दिनों में अमेरिका के लिये जाना पहचाना नाम था। छ: लोगों के इस ग्रुप ने अमेरिका में अपने कई प्रोग्राम किये थे और हॉलीवुड की कुछ फ़िल्मों में काम भी किया था। इन छ: लोगों में से तीन यहूदी थे और यही वजह थी कि नाज़ी ताकतों ने इस ग्रुप पर धीरे-धीरे पूर्णरूप से पाबंदी लगा दी थी जिसके बाद ग्रुप के यहूदी सदस्य देश छोड़ने को मजबूर हो गए थे।
छ: लोगों का मिलकर चला जादू अलग होने के बाद कभी दोबारा नहीं चला। अलग अलग तरह की गायन शैली और सुरों से जो वितान ये छ: लोग पैदा करते थे शायद वह एक की भी कमी पर नहीं बन पाया होगा। कारण जो भी रहे हों मगर सच यह है कि यह ग्रुप अद्भुत गीत गाता था और अर्थपूर्ण तो उस दौर के गीत होते ही थे।
नीचे गीत मैंने जर्मन में लिख छोड़ा है और साथ ही अपना मनचाहा अनुवाद भी। 





Irgendwo auf der Welt gibt's ein kleines bißchen Glück
und ich träum davon in jedem Augenblick.
Irgendwo auf der Welt gibt's ein bißchen Seligkeit
und ich träum davon schon lange, lange Zeit.
Wenn ich wüßt, wo das ist, ging ich in die Welt hinein,
denn ich möcht' einmal recht so von Herzen glücklich sein.

Irgendwo auf der Welt fängt mein Weg zum Himmel an,
irgendwo, irgendwie, irgendwann.
Ich hab' so Sehnsucht. Ich träum so oft:
Einst wird das Glück mir nah sein.
Ich hab' so Sehnsucht. Ich hab' gehofft:
Bald wird die Stunde nah sein.
Tage und Nächte wart' ich darauf.
Ich geb' die Hoffnung niemals auf.

Irgendwo auf der Welt gibt's ein kleines bißchen Glück
und ich träum davon in jedem Augenblick.
Irgendwo auf der Welt gibt's ein bißchen Seligkeit
und ich träum davon schon lange, lange Zeit.
Wenn ich wüßt wo das ist, ging ich in die Welt hinein,
denn ich möcht' einmal recht so von Herzen glücklich sein.
Irgendwo auf der Welt fängt mein Weg zum Himmel an,
irgendwo, irgendwie, irgendwann.
कहीं थोड़ी सी खुशी है
मैं अपलक उसके सपने देखता हूँ
किसी हिस्से में थोड़ा सा आनंद
मैं बरसों से उसे ढूंढ रहा हूँ
पता हो तो मैं वहां जाऊँ
कि मैं एक बार तहेदिल से खुश होना चाहता हूँ

दुनिया के किसी कोने से मेरे स्वर्ग का रास्ता फूटेगा
कहीं, कैसे न कैसे, कभी न कभी
चाह है मुझे, अक्सर सपना देखता हूँ
एक बार कामयाबी मिलेगी मुझे
इतना लालायित हूँ, उम्मीद है मुझे
वह घड़ी जल्द ही आएगी
दिन-रात इन्तज़ार करता हूँ मैं
और उम्मीद कभी नहीं छोड़ता

कहीं थोड़ी सी खुशी है
मैं अपलक उसके सपने देखता हूँ
किसी हिस्से में थोड़ा सा आनंद
मैं बरसों से उसे ढूंढ रहा हूँ
पता हो तो मैं वहां जाऊँ
कि मैं एक बार तहेदिल से खुश होना चाहता हूँ
दुनिया के किसी कोने से मेरे स्वर्ग का रास्ता फूटेगा
कहीं, कैसे न कैसे, कभी न कभी

शनिवार, 16 अगस्त 2008

तलत का करिश्मा

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तलत साहब उन चुनिंदा गायकों में से हैं जो एक खास वर्ग की पसंद हैं और जो लोग उन्हें सुनते हैं वे अकसर तलत को बाकी गायकों पर तरजीह देते हैं। मेरे पसंदीदा गायक हालांकि रफ़ी साहब हैं मगर तलत जी के गीत मैं किसी भी वक़्त सुन सकता हूँ। कालेज के दौर में मैं तलत का इतना दीवाना था कि दोस्तों के लिये तलत नाम मेरा पर्याय बन गया था। मेरे जन्मदिन पर दोस्तों ने तलत के डयुएट्स का चार कैसेट्स का सेट भेंट किया था…
उनकी आवाज़ मखमली कही जाती है और अनिल बिस्वास से लेकर न जाने कितने लोगों के संस्मरण मैं उनके बारे में पढ़ चुका हूँ, सुन चुका हूँ। जिस पिच पर वह गाते थे उसपर तो लोगों की आवाज़ ही बंद हो जाती है।
इसीलिये मुझे हमेशा लगता रहा कि तलत ख़ास तरह के गाने ही गा सकते थे। यह भ्रम उस दिन टूटा जब एक दिन अचानक यू-ट्यूब पर रफ़ी का गाया मशहूर गाना "चल उड़ जा रे पंछी…" तलत की आवाज़ में सुना। यह गीत हाई-पिच पर गाया गया है और इसमें पर्याप्त वाइस-मौड्युलेशन है।दोनों चीज़ें एक साथ साध पाना रफ़ी जैसे चंद गिने-चुने गायकों के लिये ही संभव रहा है। तलत की क्षमता पर शक़ तो नहीं था मगर हाँ लगता था रफ़ी के कई गीत रफ़ी के अलावा उस दौर और इस दौर का कोई गायक नहीं गा सकता था। यह भ्रम कुछ हद तक ही सही, इस गाने को सुनने के बाद टूटा है।
आप भी सुनिये तलत का करिश्मा।

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

नाना मौस्कौरि और दुनिया के गीत

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दोस्तो,
यह गीत (There's a time, there's a time) मैनें आखरी बार करीब 10 साल पहले सुना था। सुना क्या था, एफ़ एम के सुनहरे दिनों में देर रात को रिकार्ड कर लिया था, मगर अपनी बेवकूफ़ी की वजह से खो भी दिया था। तब से लेकर आजतक लगातार इस गीत को ढूंढता रहा। यह भी नहीं मालूम था कि किसने गाया है। खैर इंटरनेट के दौर में यह कोई मुश्किल काम नहीं। मगर गीत मिलना फ़िर भी कठिन है।


नाना मौस्कौरि ग्रीस की मशहूर गायिका रही हैं, ऐसी गायिका जिन्होनें अपना ज़्यादातर काम अपने देश से बाहर किया है और योरोप की तकरीबन हर प्रमुख भाषा में गाया है। 1958 से लेकर 2007 तक वे संगीत के क्षेत्र में बनी रही हैं। वोकल कॉर्ड में खराबी इस गायिका के लिये वरदान साबित हुई है, जिसे आप उनकी आवाज़ में पहचान सकते हैं। यह ख़ामी उनकी आवाज़ को करिश्माई रूप से और भी कर्णप्रिय बनाती है।

उनका गाया यह गाना एल्विस प्रेस्लि के एक गाने की तर्ज पर है हालांकि मुझे नहीं मालूम कि पहले कौनसा गाना गाया गया था। वैसे गाने दोनों ही अद्भुत हैं। एल्विस का गीत भी भविष्य में पोस्ट किया जाएगा।
कई साल पहले जर्मनी में ग्रीस के बारे में एक डॉक्युमेंटरी बनी थी जिसके लिये नाना ने एक गीत गाया था, “White Roses from Athens”। मुझे यह गीत भी पसंद है। इसके अलावा नाना के जर्मन में गाए कुछ गीत भी मुझे बेहद पसंद हैं। आने वाले दिनों में उनके कुछ और गीत मैं यहां पोस्ट करूंगा, यदि उपलब्ध हो सके तो।
वैसे हिंट के लिये बता दूँ कि अगली पोस्ट एक मराठी भजन होगा जोकि पंडित भीमसेन जोशी ने गाया है।
एक अनुरोध: गीत को इअरफ़ोन या हैडफ़ोन लगाकर सुनें। बैकग्राउण्ड में बजने वाला संगीत गायक की आवाज़ से धीमा है इसलिये ठीक से सुनाई नहीं देता और उसके बगैर गाने का लुत्फ़ भी नहीं आएगा।




There's a time, there's a time,
Time for summer and for snow,
Time for love to grow,
And to end in lonely tears

There's a place I adore
That I fear I'll see no more
I will see no more
Though I live for a hundred years

There's a time for losing all you want
And a time for traveling on
But the hurt in my heart,
It goes on from day to day,
Will not go away,
Keeps on longing for what's gone

There's a time, there's a time
When a love is young and new
Heaven's painted blue
When we lay in the summer grass

For a time, for a time,
You were so in love with me
So, how was I to see
That the summer would pass?

Now, you ride the ocean, chase the stars
Underneath some far-away sky
And the hurt in my heart
Knows you're never coming home,
Never coming home
Till the day the sea runs dry

In my dreams, in my dreams,
You have left yourself behind
You caress my mind
When the nights grow dark and chill

Vagabond, vagabond
Always traveling beyond,
Where's the magic wand
That will bring you nearer still?

There's a time for holding to your dreams
And a time for starting a new
But the hurt in my heart,
It goes on from day to day,
Never goes away
For it's all I have left of you.

शनिवार, 9 अगस्त 2008

चीख और हुल्लड़ के बीच संगीत

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संगीत पर दिमाग देना भी उतना ही ज़रूरी है जितना कान देना। काफ़ी दिनों से सिर्फ़ गाने, ग़ज़लें ही पोस्ट किये जा रहा था और संगीत पर कुछ विचार जो मैनें काफ़ी अरसे से सहेज कर रखे हुए थे, उनको पोस्ट करना स्थगित किये जा रहा था।
विनोद भारद्वाज कुछ अरसे तक नवभारत टाइम्स में विभिन्न विषयों पर छोटे-छोटे मगर काफ़ी विचारोत्तेजक लेख लिखते रहे। आज पढ़ते हैं संगीत के बदलते स्वरूप पर उनके तात्कालिक विचार। यह छोटा सा आलेख बारह साल पहले मार्च 1996 में छपा था मगर इसकी प्रासंगिकता आज बढ गई है।

एक प्रसिद्ध पश्चिमी मानवशास्त्री ने कहीं कहा था कि एक समाज शायद चित्रकला के बिना रह सकता है लेकिन संगीत के बिना रहना उसके लिये असंभव है। वैसे तो प्रागैतिहासिक गुफा चित्र यह बात अच्छी तरह से बताते हैं कि आदिम मनुष्य भी रचना को अपने लिये जरूरी मानता था पर शायद संगीत एक अधिक केंद्रीय और जरूरी अभिव्यक्ति है। वैसे अगर हम 'केंद्रीय विधा' सरीखी बहसों में न उलझें (एक जमानें में हिंदी आलोचक इस पर बहस करते थे कि कविता केंद्रीय विधा है या कहानी), तो भी संगीत के पक्ष में कुछ महत्वपूर्ण बातें की जा सकती हैं। पश्चिम के एक अध्ययन में एक दिलचस्प तथ्य सामने आया था कि मोत्सार्ट का संगीत सुनकर व्यक्ति अधिक बुद्धिमान और 'सभ्य' हो जाता है। शायद इस बात का मतलब यह नहीं है कि आप ज्यों ही मोत्सार्ट सुनना शुरू करेंगे त्यों ही आपकी आई क्यू बढ़ जाएगी पर इस तथ्य से कौन इनकार करेगा कि संगीत हर तरह के आदमियों की मानसिकता को उद्वेलित करता है, उसे बेहतर बनाता है। कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी को सुनकर श्रोता निश्चय ही एक बुद्धिमान और बेहतर इंसान बनता है। इस तरह का श्रेष्ठ संगीत श्रोता रुलाता भी है और उसे आम ज़िंदगी से ऊपर भी ले आता है। अच्छा संगीत सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं है - विचार भी है। मीठा और सजावटी संगीत चित्त को प्रसन्न करता है। पर जिस संगीत में विचार भी हो वह मानसिकता को प्रसन्नता से भी परे ले जाता है। मिसाल के लिये जब मैं किशोरी अमोनकर का गाया राग भूप सुनता हूँ तो लगता है कि जैसे गायिका आपको विचार भी दे रही है। शायद इसीलिये कहा गया है कि श्रेष्ठ संगीत बुद्धिमान बनाता है।

एक हिंदी कवि ने अपनी कविता में कहा था कि सड़क पर साधारण काम करने वाला मकैनिक अगर हजारा सिंह का गिटार सुन कर बहुत प्रसन्न और मगन है, तो इस संगीत-अनुभव को भीमसेन जोशी सुनने वाले तथाकथित श्रेष्ठ श्रोताओं के अनुभव से खराब क्यों माना जाए? इस सवाल में एक तरह की सच्चाई है। साधारण जन का संगीत से प्रेम विशिष्ट श्रोताओं से कम नहीं है। दरअसल विशिष्ट श्रोताओं की भी एक महान नकली दुनिया है। सिर्फ़ संगीत की दुनिया में ही नहीं कला, सिनेमा, साहित्य आदि की दुनिया में भी फ़ैशनेबल और हाइब्रो होने का नकली दिखावा सामने आता रहा है।

अंग्रेज़ी कवि टी एस एलियट की एक प्रसिद्ध कविता में कहा गया है कि प्रदर्शनी में 'स्त्रियां आ जा रही हैं और मिकेलांजेलो के बारे में बतिया रही हैं।' यहां कवि फ़ैशनेबल कला रसिकों पर चोट कर रहा है- स्त्रियों पर नहीं। धनी और फ़ैशनेबल वर्ग की पार्टियों में हुसैन, गणेश पाइन या रविशंकर की बात कर के लोग अपने को उम्दा टेस्ट रखने वाला साबित करते हैं। लेकिन इस तरह के फ़ैशनेबल लोग सच्चे और गंभीर किस्म के कला रसिकों की दुनियां निरर्थक नहीं बना देते हैं।

हाल में एक फ़्रांस के अध्ययन के बारे में पढ़ा था कि पश्चिम की युवा पीढ़ी भयंकर रुप में तेज़ाबी और शोर से भरे संगीत को सुन कर बहरी हो रही है। किशोर वाकमैन या डिस्कमैन पर जो शोर से भरा संगीत सुन रहे हैं वह उनके कान के पर्दों पर सीधा प्रहार कर रहा है। महान जर्मन संगीतकार लुडविग फ़ान बिथोवन अपने अंतिम वर्षों में बहरे हो गए थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उनकी कालजयी रचना नवीं सिंफ़नी का पहला कार्यक्रम समाप्त हुआ था, तो वह श्रोताओं की प्रशंसा में बजायी गई तालियों के शोर को भी सुनने लायक नहीं रह गए थे। लेकिन बिथोवन दूसरे कारणों से बहरे हुए थे। आज के युवा श्रोता अगर तथाकथित 'हैडबैंगर' (सरतोडू) संगीत को सुन कर अपने कान के परदे भी फोड़ने के लिये तैयार हैं तो यह एक अलग तरह की समस्या है। इसका सम्बन्ध पश्चिम की अत्यधिक यंत्रविधि पर आश्रित और उपभोक्तावाद की कैदी हो चुकी सभ्यता से भी है। वहां का युवा वर्ग विलाल्दी या मोत्सार्ट के कर्णप्रिय संगीत से आसानी से अपने आप को जोड़ नहीं पाता है। एक तेज़ाबी और शोर से भरी हुई नशीली दवाओं की दुनिया में आत्मघाती ढंग से खोई हुई संवेदना उसे अपनी लगती है।

पश्चिम के सबसे लोकप्रिय संगीत चैनल एम टी वी अपने विज्ञापनों में यह बात गर्व से कहता है कि 'हम अच्छे टेस्ट के कारण नहीं पहचाने जाते हैं।' यानी अच्छा, संतुलित कर्णप्रिय, विचारशील संगीत आप ही को मुबारक हो-हम तो सरतोड़ू संगीत के रसिया हैं। इस तरह का संगीत गैर पश्चिमी देशों में भी लोकप्रिय हुआ है।

एक ज़माने के सोवियत संघ की लौह दीवार भी पॉप संगीत से बच नहीं सकी थी। चेकोस्लोवाकिया आदि देशों में युवा वर्ग सत्ता से अपना विरोध दिखाने के लिये भी पॉप संगीत की शरण में चला जाता था। वहां बाकयदा अंडरग्राउंड संगीत में पॉप संगीत का मिजाज़ एक अलग तरह की 'डिसिडेंट' मानसिकता से जुड़ा था।

दरअसल एम टी वी का विज्ञापन जब 'गुड टेस्ट' पर सीधा हमला करना चाहता है, तो उसका एक अर्थ व्यवस्था से विरोध ज़ाहिर करने में भी है। पश्चिमी उपभोक्ता समाज के ऊबे हुए किशोर साठ के दशक में जब 'ट्यून इन, टर्न ऑन, ड्राप आउट,' के आकर्षक नारों से चमत्कृत हुए थे, तो वे एक साइकेडेलिक दुनिया में चले गए। लड़ने के इरादे से नहीं, बल्कि वे यथार्थ से भागना चाहते थे। नशीली दवाओं, तेज़ संगीत ने उन्हें एक अंधेरे बंद कमरे से दूसरे बंद कमरे में जाने की राह दिखाई। साठ के दशक में बीटल्स का संगीत उस दौर में एक तरह का प्रोटेस्ट नज़र आता था। पर आज के तेज़ाबी, तामसी और 'राक्षसी' हैवी मैटल संगीत के सामने अब बीटल्स के गाने कर्णप्रिय और अर्थपूर्ण दिखाई देने लगे हैं।

बीटल्स
गायकों ने पंडित रविशंकर के सितारे और महर्षि महेश योगी के मेडीटेशन में भी दिलचस्पी ली थी। दिलचस्प बात यह है कि आज पंडित रविशंकर एम टी वी की आलोचना कर रहे हैं और दूसरे शास्त्रीय संगीतकार उन पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले पॉप संगीत का गुरु बनने की कोशिश की थी। आज जब ध्वनि प्रदूषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है तो 'चीख' और 'हुल्लड़' में फ़र्क करने की एक जेनुइन ज़रूरत भी नज़र आ रहा है।

- विनोद भारद्वाज

बुधवार, 6 अगस्त 2008

फ़रीदा ख़ानम और दयार-ए-दिल की रात

6टिप्पणियां
फ़रीदा ख़ानम से इन दिनों मैं कुछ ज़्यादा ही प्रभावित हूँ और इसकी वजहें भी हैं मेरे पास। जब से गीत-ग़ज़ल पोस्ट करनी शुरु की हैं तबसे यह फ़रीदा आपा की तीसरी पोस्ट है। यह सिलसिला आगे भी जारी रखने का विचार है। मेरा उद्देश्य है कि आप लोगों के साथ संगीत की हर शक्ल बाँटू। कम से कम वह सब जो मैं सुनता हूँ।
यह ग़ज़ल मैनें बहुत ध्यान से पहली बार तब सुनी जब इसे अपनी लिखी इस कहानी में इस्तेमाल किया। तभी यह भी पता लगा कि इसके भी तीन शेर तो गाए ही नहीं गए हैं। शायद गुलाम अली साहब ने भी यह ग़ज़ल गाई है मगर मैनें कभी सुनी नहीं है। खैर छोड़िये… फ़िलहाल आप इस ग़ज़ल का लुत्फ़ लीजिये।









दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक़्ल तो दिखा गया

वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी-छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया

जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिये
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया

पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गईं वो सोहबतें
ज़मीं निगल गई उन्हें या आसमान खा गया

ये सुबहो की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया

ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ चला गया

गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अमलकशो उठो कि आफ़ताब सर पे आ गया

सोमवार, 4 अगस्त 2008

स्पेनी मैलोडी और ख़ूलियो का नाम

7टिप्पणियां
स्पेनिश-भाषी जगत में ख़ूलियो इग्लेसियास (Julio Iglesias) बहुत ही प्रसिद्ध एंव प्रिय नाम हैं। आप शायद उन्हें एनरिके इग्लेसियास (Enrique Iglesias) के पिता के रूप में जानें मगर स्पेनिश-भाषी दुनियां में बात बिल्कुल इसके विपरीत है। वहां लोग एनरिके को ख़ूलियो के पुत्र के रूप में जानते हैं। लातिन जगत में ख़ूलियो सबसे ज़्यादा बिकने वाले गायक हैं। एक बार ख़ूलियो ने कहा था कि मैं बिस्तर की बजाय स्टेज पर मरना पसंद करूंगा।
ख़ूलियो से मेरा परिचय मेरी पत्नी ने, जोकि दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पेनिश की स्टूडेंट और लेक्चरर दोनों ही रह चुकी हैं और होते-होते हिंदुस्तानी से ज़्यादा स्पेनिश हो गई हैं, हमारी डेटिंग के दिनों में करवाया। इस गुरु-गंभीर आवाज़ में ग़ज़ब का जादू है जो एकदम से किसी को भी बांध लेता है। मेरे साथ भी यही हुआ। एक ही बार में मैनें ख़ूलियो के सारे गाने सुन डाले।
यह गीत मुझे खासतौर पर इसलिये पसंद है क्योंकि यहाँ आवाज़ और संगीत एक-दूसरे के नए अर्थ प्रेषित करते प्रतीत होते हैं और एक-दूसरे के पूरक भी बन जाते हैं।





"Me Olvide De Vivir"

De tanto correr por la vida sin freno
Me olvidé que la vida se vive un momento
De tanto querer ser en todo el primero
Me olvidé de vivir los detalles pequeños

De tanto jugar con los sentimientos
Viviendo de aplausos envueltos en sueños
De tanto gritar mis canciones al viento
Ya no soy como ayer, ya no se lo que siento


Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir


De tanto cantarle al amor y la vida
Me quede sin amor una noche de un día
De tanto jugar con quien yo más quería
Perdí sin querer lo mejor que tenía


De tanto ocultar la verdad con mentiras
Me engañé sin saber que era yo quien perdía
De tanto esperar, yo que nunca ofrecía
Hoy me toca llorar, yo que siempre reía


Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir


De tanto correr por ganar tiempo al tiempo
Queriendo robarle a mis noches el sueño
De tanto fracasos, de tantos intentos
Por querer descubrir cada día algo nuevo


De tanto jugar con los sentimientos
Viviendo de aplausos envueltos en sueños
De tanto gritar mis canciones al viento
Ya no soy como ayer, ya no se lo que siento


Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir
Me olvidé de vivir


"I forgot to live"

I ran through this life so much without restraint
that I forgot that life is lived in a moment
I wanted so much to be the first one in everything,
that I forgot to live the small details.

I played so much with feelings
Living of applauses wrapped in dreams
I shouted so much my songs in the wind,
that I'm no longer as I was yesterday,
I don't know what I feel.

I forgot to live
I forgot to live
I forgot to live
I forgot to live

I sang so much to love and to life
that I was left alone one day's night
I played so much with whom I loved the most
that I unintentionally lost the best thing I had.

I sang so much to truth with lies
that I deceived, unaware that I was the one who was losing,
I expected so much, I who never offered,
that today it's my turn to cry, I who always laughed.

I forgot to live
I forgot to live
I forgot to live
I forgot to live

I ran so much trying to earn time from time
wanting to steal sleep from my nights
So many failures, so many tries,
wanting to discover something new every day.

I played so much with feelings
Living of applauses wrapped in dreams
I shouted so much my songs in the wind,
that I'm no longer as I was yesterday,
I don't know what I feel.

I forgot to live
I forgot to live
I forgot to live
I forgot to live

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

फ़रीदा ख़ानम की एक और ग़ज़ल

6टिप्पणियां
औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ अपनी पहली पोस्ट में हमने आपको फ़रीदा आपा की अपनी एक प्रिय ग़ज़ल से रूबरू करवाया था। उसी मूड की एक ग़ज़ल लेकर हम फ़िर आ गए हैं। फ़ैज़ साहब की ग़ज़ल है, जिसमें से तीसरा शेर और मक़्ता ग़ायब है। दो मिसरों के बीच उसे पढ़ लें और पूरा लुत्फ़ लें। कुछ भाई लोग बोले थे कि मुश्किल शब्दों का अर्थ भी दे दिया जाए तो बेहतर। अब भई हमें जो शब्द कठिन लगे उनका मतलब हमनें दे दिया है। अगर फ़िर भी कुछ रह जाए तो माफ़ी चाहूँगा।






सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आये हैं
हम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंजिल से आये हैं


शम्म-ए-नज़र, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग़
जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं


उठकर तो आ गये हैं तेरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आये हैं


हर इक क़दम अज़ल था, हर इक ग़ाम ज़िन्दगी
हम घूम-फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आये हैं


इस बज़्म में शहीद-ए-वफ़ा जाने कौन हो
सब परसलाम हुस्न की महफ़िल से आए हैं


बादे-ख़िज़ां का शुक्र करो "फ़ैज़" जिसके हाथ
नामे किसी बहार-शमाइल से आये हैं


अंजुम-सितारे, ख़िज़ां-पतझड़, मुक़ाबिल-सामना, सुर्ख-रू-सफल, अज़ल-अनंतकाल, ग़ाम-गति, बादे-ख़िज़ां-पतझड़ के बाद,

अपने रफ़ी साहब नई तान के साथ

7टिप्पणियां
परसों रफ़ी साहब की पुण्यतिथि थी और कल प्रेमचंद जी का जन्मदिन। अपन तो समंदर के बीच sailing कर रहे थे वरना वक़्त पर दोनों पर कुछ पोस्ट करते। प्रेमचंद जी मेरी कुव्वत से ज़्यादा गंभीर विषय हैं इसलिये देर से ही सही, सिर्फ़ रफ़ी जी पर पोस्ट डालकर फ़ारिग हो रहा हूँ।

रफ़ी साहब को आलोचकों ने ग़ज़ल के लिये अयोग्य कहकर ख़ारिज कर दिया था। संभवत: उन्हें सच में ऐसा लगा हो और यह भी संभव है कि वे इस बात से डरते हों कि रफ़ी साहब ग़ज़ल-जगत पर भी छा जाएंगे। सच जो भी हो, रफ़ी साहब ने ज़्यादा प्रयास नहीं किये इस ओर। तो भी उनकी गायी एक ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। वही प्रस्तुत है आज। शमीम जयपुरी जी की ग़ज़ल को ताज अहमद ख़ान जी ने संगीत दिया है।








कितनी राहत है दिल टूट जाने के बाद
ज़िंदगी से मिले मौत आने के बाद


लज़्ज़त-ए-सजदा-ए-संग-ए-दर क्या कहें
होश ही कब रहा सर झुकाने के बाद


क्या हुआ हर मसर्रत अगर छिन गई
आदमी बन गया ग़म उठाने के बाद


रात का माजरा किससे पूछूँ 'शमीम'
क्या बनी बज़्म पर मेरे आने के बाद
 

प्रत्येक वाणी में महाकाव्य... © 2010

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