दो दिन पहले बेग़म अख़्तर की ग़ज़ल पर संजय भाई ने कहा कि उनका मालवा बारिश को तरस रहा है और कि ग़ज़ल सुनकर "मन तक बरस गए… आसमां में रुके बादल"। संजय भाई ने कहा तो नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं। सोचा क्यों न उनके मालवा को एक सावन का गीत अख़्तरीबाई की आवाज़ में सुना दूँ। शायद उमस कम हो जाए, शायद मन तर हो जाए।
जिस तरह बेग़म सावन से टूटकर गुहार लगा रही हैं वह कैसे न रह जाए? जब बड़े भाई शास्त्रीय संगीत सीख रहे थे एक किस्सा सुनाते थे कि एक बार बड़े ग़ुलाम अली खां समन्दर किनारे बैठकर गा रहे थे और उनकी तानों पर पानी उनके पैताने तक चढ़ आया था। क्या जाने संगीत देवों की वाणी हो।
साथ ही त्रिलोचन और मुक्तिबोध की क्रमश: दो कविताएँ, जो सांस्कृतिक गलियारों में सालों पहले मुफ़्त के दिनों में दोस्तों के साथ बांचा करते थे, मेरी मनमर्ज़ी की।
॥1॥
आओ इस आम के तले
यहाँ घास पर बैठें हम
जी चाही बात कुछ चले
कोई भी और कहीं से
बातों के टुकड़े जोड़ें
संझा की बेला है यह
चुन-चुनकर तिनके तोड़ें
चिन्ताओं के। समय फले।
आधा आकाश सामने
क्षितिज से यहाँ तक आभा
नारंगी की। सभी बने।
ऐसे ही दिन सहज ढले।
॥2॥
… यह सही है कि चिलचिला रहे फ़ासले,
तेज़ दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद-छाँह वहीं
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्त:करण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
जी की पुकार
जितनी अनन्य।
आओ इस आम के तले
यहाँ घास पर बैठें हम
जी चाही बात कुछ चले
कोई भी और कहीं से
बातों के टुकड़े जोड़ें
संझा की बेला है यह
चुन-चुनकर तिनके तोड़ें
चिन्ताओं के। समय फले।
आधा आकाश सामने
क्षितिज से यहाँ तक आभा
नारंगी की। सभी बने।
ऐसे ही दिन सहज ढले।
॥2॥
… यह सही है कि चिलचिला रहे फ़ासले,
तेज़ दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद-छाँह वहीं
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्त:करण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
जी की पुकार
जितनी अनन्य।