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मंगलवार, 10 मई 2011

देवो मोहे धीर

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मैं रोज़ रात को कुछ न कुछ संगीत सोने से पहले सुनता हूँ; खासतौर पर शास्त्रीय या उपशास्त्रीय संगीत. इसी सीरीज में आजकल पंडित कुमार गन्धर्व का गायन चल रहा है. यकीन जानिये अँधेरे कमरे में इस आवाज़ से दिव्य कुछ नहीं लगता.

ज़रा राग टोडी में इस बंदिश को सुनिए इस पावन स्वर में.






यह सिलसिला अभी जारी रखने का इरादा है. अगर आलस ने साथ न दिया तो आपको कुछ और पंडित जी की आवाज़ में ज़रूर सुनाया जायेगा.

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

याद पिया की आए…

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ठुमरी से मेरी पहली मुठभेड़ तकरीबन-तकरीबन कॉलेज जाने की उम्र में हुई थी, प्रहार फिल्म के ज़रिये। उस समय और उसके बाद के कुछ सालों तक ठुमरी या और किसी उपशास्त्रीय संगीत से कोई ख़ास साबका नहीं पड़ा। उस दौर में फ़िल्मी संगीत इस हद तक स्तरहीन हो चुका था कि उसके और घटिया होने की गुँजाइश नहीं बची थी। हम दोस्त पुराने फ़िल्मी गीत सुनते थे और वहाँ से होते हुए पुराने ग़ैर-फ़िल्मी संगीत की ओर मुड़े। फिर उधर से ग़ज़लों की ओर। इतना परिपक्व होने में भी कई साल लग गए कि शास्त्रीय संगीत की ओर रुख़ करते। ऐसे समय में यदा-कदा कोई ऐसी चीज़ सुनाई दे जाती कि यकीन होता शास्त्रीय संगीत से परहेज़ की या डरने की कोई वजह नहीं।

बात प्रहार फ़िल्म की हो रही थी, जिसमें शोभा गुर्टू जी की गाई ठुमरी 'याद पिया की आए' सुनी थी। आज कई दिनों बाद आइपॉड पर ठुमरी सुनने बैठा तो शफ़ल मोड पर यही ठुमरी गुर्टू जी की आवाज़ में चलने लगी। उसके ठीक बाद फिर से यही ठुमरी बड़े गुलाम अली साहब की आवाज़ में भी चल पड़ी।

तकनीक बहुत बड़ी नेमत है इसका ख़याल मुझे बार-बार संगीत के दिग्गजों को सुनते हुए होता है, जो अब हमारे बीच नहीं हैं या जिन्हे लाइव सुनने का इत्तेफ़ाक़ अभी हुआ नहीं है। आज भी जब यही ठुमरी ऐसे मूर्धन्य गायकों की आवाज़ में एक के बाद एक सुनने को मिली तो वैसा ही महसूस हुआ। तो ब्लॉग पर आज क्यों न दोनों ही आवाज़ों में यही ठुमरी लगाई जाए?











सोमवार, 24 जनवरी 2011

जाऊँ मैं तोरे बलिहारी - पंडित भीमसेन जोशी को श्रद्धांजलि

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दो-दिन पहले पिछली पोस्ट लगाते हुए मालूम नहीं था कि इतनी जल्दी फिर एक पोस्ट लिखने बैठूँगा। यह उम्मीद तो कतई नहीं थी कि दु:ख के साथ ब्लॉग पर आना होगा। सुबह-सुबह अखबार में सबसे पहले पंडित भीमसेन जोशी जी के देहांत की खबर पर नज़र पड़ी। दिनभर टीवी पर उनके स्वर्गवास की खबर फ़्लैश होती रही। सभी ने कहा यह दु:खद समाचार है; एक युग का अंत है।
निश्चित ही एक युग का अंत है। मुझ जैसों के लिए तो इस युग से पहले शून्य था, बाद में भी शायद शून्य ही रहेगा। पं भीमसेन जोशी, पं जसराज, कुमार गंधर्व, सुब्बुलक्ष्मी, पं छन्नूलाल मिश्रा जैसे नामों ने इस युग को गढ़ा था, इनके साथ ही शायद इस युग का अंत हो जाए। पंडित जी ने कबीर को कितना गाया था, कितना मराठी में गाया था। सब अच्छा लगता था। इससे पहले एक ही बार उनका गाया यहां पोस्ट करने का इत्तेफ़ाक़ हुआ था। जब शास्त्रीय संगीत से गजभर की दूरी रखता था तब भी कही पंडित जी की आवाज़ में कोई भजन गाहे-बगाहे सुनाई दे जाता तो झट से उनकी आवाज़ को पहचानने की कोशिश करता जैसे अपने प्रिय फ़िल्मी गायकों की आवाज़ को पहचानता था।
देह नहीं है, आवाज़ तो रहेगी। पंडित जी की राग वृंदावनी सारंग में गाई यह रचना बहुत पसंद की जाती रही है और मुझे भी बेहद भाती है। श्रद्धांजली के रूप में वही पोस्ट कर रहा हूँ।


गुरुवार, 14 जनवरी 2010

मास्टर मदन - अबूझ प्रतिभा

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इंटरनेट बड़े काम की चीज़ है। इसपर घर बैठे-बैठे इतने काम हो जाते हैं कि कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। इस वजह से बैठे-बैठे कमर दर्द को न्यौता दे बैठा। मगर सुखद पहलू यह है कि इसी की बदौलत दुनिया के सुदूर कोनों पर बैठे कई लोगों से मैं आज संपर्क में हूँ और कई अनदेखे दोस्त भी हैं। इंटरनेट की वजह से ही कई तरह के संगीत से वास्ता भी पड़ा है, जो शायद वैसे मैं कभी देख-सुन नहीं पाता।
इसी की बदौलत आज मेरे पास कई अनमोल-अप्राप्य संगीत है जो शायद वैसे दुनिया की किसी लाइब्रेरी में संग्रहीत नहीं होगा और यदि होगा भी तो मेरी और मेरे जैसे कई लोगों की पहुंच से बाहर ही रहता।

मास्टर मदन के बारे में भी इंटरनेट पर चरते हुए एक दिन पता लगा। यह पता लगना वास्तव में बहुत ही सीमित है। सिर्फ़ उतना ही जान सका जितना विकीपीडिया पर उपलब्ध था। गजब का प्रतिभावान गायक सिर्फ़ 14 बरस की उम्र में चल बसा और इन्होने अपने छोटे से जीवन में सिर्फ़ आठ गीत रिकार्ड करवाए।

पहली बार सुनते हुए मुझे यकायक विश्वास नहीं हुआ कि इस उम्र में कोई गायन में इतना परिपक्व हो सकता है। उदाहरण के लिये ये ठुमरी सुनिये।



शनिवार, 4 अप्रैल 2009

आए न बालम

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अभी तक तो कोई भी शुद्ध शास्त्रीय संगीत पर आधारित पोस्ट इधर चस्पां नहीं की है। सो आज जो टटोलने लगा तो एकाएक नज़र बड़े गुलाम अली साहब पर पड़ी। ऐसा कलाकार हो तो क्या छोड़ा जाए और क्या चुना जाए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता। वे चुनाव से ऊपर की चीज़ हो जाते हैं। कोई भी बंदिश, कोई भी टुकड़ा उठा लीजिये मनभावन ही होगा। तो फ़िर हम सेमी-क्लासिकल पर ही अटक गए।



"का करूँ सजनी आए न बालम" येसुदास जी की आवाज़ में किसने नहीं सुना होगा और किसे नहीं भाया होगा? दरअसल यह एक ठुमरी है जिसे बड़े गुलाम अली साहब ने गाया है। ज़ाहिर है फ़िल्म में इसमें थोड़ा बदलाव किया गया है। खान साहब का नाम आता है तो इस ठुमरी का नाम भी ज़रूर आता है। यहाँ ब्लॉग पर खान साहब का आगाज़ करने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है? ठुमरी के तुंरत बाद ही एक छोटी सी बंदिश राग मालकौस में है।





सोमवार, 5 जनवरी 2009

झुक-झुक देखें नयनवा

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शास्त्रीय संगीत की समझ अनिवार्य है ऐसा हमें नहीं लगता। समझ हो तो माशा-अल्लाह, न हो तो भी ठीक। ऐसे कई लोगों से साबका पड़ा है जिन्हें समझ नहीं मगर वे उसका आनंद लेना जानते हैं।

खैर हम यहाँ कोई शुद्ध शास्त्रीय संगीत नहीं लगा रहे, इसलिए यह चर्चा बेमानी है। बेग़म अख़्तर का राग पूर्वी में गाया दादरा है। सुनिए और मस्त हो जाइये।




मंगलवार, 26 अगस्त 2008

बारिश के बीच गंगूबाई हंगल

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बरसात आती है तो मुझे दो गीत याद आते हैं। एक तो मुन्नी बेग़म का गाया "जब सावन रुत की पवन चली…" और खासतौर पर बेग़म अख़्तर की गाई ग़ज़ल "कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया…" बेहद याद आती है; खासकर वो शेर:
"हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब,
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया"

मैं शराब के लिये बरसात का मुंह नहीं ताकता। समझदारी करके स्टाक रखता हूँ। अंग्रेज़ों के लिये भारत की बारिश कुत्ते-बिल्ली बरसने जैसी होती है मगर अपने लिये तो सावन-भादो नवजीवन का प्रतीक है, एक पर्व है। सिर्फ़ झूले पड़ने का पर्व नहीं, संगीत का पर्व भी जहां सुर और साज़ बारिश की ताल पर थिरकते हैं और बारिश के लिये भी राग निर्धारित हैं। कल झमाझम बरसा है और आज भी आसार हैं। बंगलौर में तो अभी नवंबर तक मानसून रहेगा। ऐसे में अगर मिया की मल्हार सुना जाए तो मज़ा दुगना हो जाए और अगर गंगूबाई हंगल गा रही हों तो मज़े का अनुपात कई गुना बढ़ जाता है। कल से ही बालकनी में बैठकर यही कर रहा हूँ। छोटी सी तान है फ़िलहाल के लिये।

 

प्रत्येक वाणी में महाकाव्य... © 2010

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