औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ अपनी पहली पोस्ट में हमने आपको फ़रीदा आपा की अपनी एक प्रिय ग़ज़ल से रूबरू करवाया था। उसी मूड की एक ग़ज़ल लेकर हम फ़िर आ गए हैं। फ़ैज़ साहब की ग़ज़ल है, जिसमें से तीसरा शेर और मक़्ता ग़ायब है। दो मिसरों के बीच उसे पढ़ लें और पूरा लुत्फ़ लें। कुछ भाई लोग बोले थे कि मुश्किल शब्दों का अर्थ भी दे दिया जाए तो बेहतर। अब भई हमें जो शब्द कठिन लगे उनका मतलब हमनें दे दिया है। अगर फ़िर भी कुछ रह जाए तो माफ़ी चाहूँगा।
सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आये हैं
हम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंजिल से आये हैं
शम्म-ए-नज़र, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग़
जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं
उठकर तो आ गये हैं तेरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आये हैं
हर इक क़दम अज़ल था, हर इक ग़ाम ज़िन्दगी
हम घूम-फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आये हैं
इस बज़्म में शहीद-ए-वफ़ा जाने कौन हो
सब परसलाम हुस्न की महफ़िल से आए हैं
बादे-ख़िज़ां का शुक्र करो "फ़ैज़" जिसके हाथ
नामे किसी बहार-शमाइल से आये हैं
अंजुम-सितारे, ख़िज़ां-पतझड़, मुक़ाबिल-सामना, सुर्ख-रू-सफल, अज़ल-अनंतकाल, ग़ाम-गति, बादे-ख़िज़ां-पतझड़ के बाद,
6 टिप्पणियां:
सुंदर गजल .सुनवाने का शुक्रिया
हम भाई लोगो को आपकी ये पेशकश भी पसंद आई। पुरा लुत्फ़ लिया। कठिन शब्दों का अर्थ बताने का शुक्रिया।
waah!! badhiyaa post
Farida ji ki gajal sunane ke liye aabhar.
bhut bhut aabhar Farida ji ko sunane ke liye.
वाह जी साब, लाजवाब ग़ज़ल क्या बोल क्या गायकी....माशाल्लाह
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