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शनिवार, 30 अगस्त 2008

फ़िर बेग़म अख़्तर की बारिश

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दो दिन पहले बेग़म अख़्तर की ग़ज़ल पर संजय भाई ने कहा कि उनका मालवा बारिश को तरस रहा है और कि ग़ज़ल सुनकर "मन तक बरस गए… आसमां में रुके बादल"। संजय भाई ने कहा तो नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं। सोचा क्यों न उनके मालवा को एक सावन का गीत अख़्तरीबाई की आवाज़ में सुना दूँ। शायद उमस कम हो जाए, शायद मन तर हो जाए।
जिस तरह बेग़म सावन से टूटकर गुहार लगा रही हैं वह कैसे न रह जाए? जब बड़े भाई शास्त्रीय संगीत सीख रहे थे एक किस्सा सुनाते थे कि एक बार बड़े ग़ुलाम अली खां समन्दर किनारे बैठकर गा रहे थे और उनकी तानों पर पानी उनके पैताने तक चढ़ आया था। क्या जाने संगीत देवों की वाणी हो।
साथ ही त्रिलोचन और मुक्तिबोध की क्रमश: दो कविताएँ, जो सांस्कृतिक गलियारों में सालों पहले मुफ़्त के दिनों में दोस्तों के साथ बांचा करते थे, मेरी मनमर्ज़ी की।





॥1॥
आओ इस आम के तले
यहाँ घास पर बैठें हम
जी चाही बात कुछ चले
कोई भी और कहीं से
बातों के टुकड़े जोड़ें
संझा की बेला है यह
चुन-चुनकर तिनके तोड़ें
चिन्ताओं के। समय फले।
आधा आकाश सामने
क्षितिज से यहाँ तक आभा
नारंगी की। सभी बने।
ऐसे ही दिन सहज ढले।

॥2॥
… यह सही है कि चिलचिला रहे फ़ासले,
तेज़ दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद-छाँह वहीं
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्त:करण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
जी की पुकार
जितनी अनन्य।

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

मलिका-ए-ग़ज़ल अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी

8टिप्पणियां
अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी, जो बेग़म अख़्तर के नाम से ज़्यादा जानी जाती हैं, को ग़ज़लों में शास्त्रीय संगीत के सफलतापूर्वक प्रयोग करने का श्रेय जाता है। बरसों पहले जब ग़ज़लों को समझने-बूझने की कोशिशें चल रही थीं तो बेग़म अख़्तर की एक कैसेट सोतड़ू (राजेश) के पास से हाथ लगी। एक बार सुनने के बाद ही सिर भन्ना गया कि अमां ये क्या बला है। सिर-पैर कुछ समझ नहीं आया और अगले कुछ सालों तक दोबारा सुनने का इत्तेफ़ाक भी नहीं हुआ। अगले मौके पर जब सुना तो दंग रह गया (तबतक शायद समझ थोड़ी बेहतर हो गयी होगी)।
मलिका-ए-ग़ज़ल अकसर अपनी ग़ज़लें खुद ही कंपोज़ करती थीं। (वैसे मैंने नोटिस किया था कि मलिका पुख़राज ने भी अपनी कुछ बेहतरीन ग़ज़लें खुद ही कंपोज़ की थीं)। शायद अंतिम समय में बेग़म अख़्तर ने सुदर्शन फ़ाकिर की काफ़ी ग़ज़लें गाईं थीं। जितनी भी मैंने सुनीं मुझे सभी बेहद पसंद हैं; खासकर "कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया" और "ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया"। अफ़सोस कि mp3 में फ़िलहाल मेरे पास इनमें से कोई भी ग़ज़ल उपलब्द्ध नहीं है मगर जो है वह भी उतनी ही बेहतरीन है।


सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मुहब्बत का भरोसा भी नहीं
यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवान-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि फिराक़
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
ग़ज़ल के बाकी के शेर यहां:
ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुश्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज से उठता भी नहीं
बदगुमां होके न मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ऐ-बेजा भी नहीं
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज-ए-जिन्दा भी नहीं बौशाते सेहरा भी नहीं
सौदा - पागलपन, इश्क, तर्क-ए-मुहब्बत - प्रेमांत, यगान - अज़ीज़
 

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