अभी तक तो कोई भी शुद्ध शास्त्रीय संगीत पर आधारित पोस्ट इधर चस्पां नहीं की है। सो आज जो टटोलने लगा तो एकाएक नज़र बड़े गुलाम अली साहब पर पड़ी। ऐसा कलाकार हो तो क्या छोड़ा जाए और क्या चुना जाए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता। वे चुनाव से ऊपर की चीज़ हो जाते हैं। कोई भी बंदिश, कोई भी टुकड़ा उठा लीजिये मनभावन ही होगा। तो फ़िर हम सेमी-क्लासिकल पर ही अटक गए।
"का करूँ सजनी आए न बालम" येसुदास जी की आवाज़ में किसने नहीं सुना होगा और किसे नहीं भाया होगा? दरअसल यह एक ठुमरी है जिसे बड़े गुलाम अली साहब ने गाया है। ज़ाहिर है फ़िल्म में इसमें थोड़ा बदलाव किया गया है। खान साहब का नाम आता है तो इस ठुमरी का नाम भी ज़रूर आता है। यहाँ ब्लॉग पर खान साहब का आगाज़ करने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है? ठुमरी के तुंरत बाद ही एक छोटी सी बंदिश राग मालकौस में है।
4 टिप्पणियां:
वाह लाजवाब !
ये सुनाने के लिये धन्यवाद। बचपन से कई हज़ार बार सुनती रही हूँ इसे और फिर भी एक नई कशिश खींचती है इसकी ओर...शुक्रिया।
बहुत सुन्दर गीत है। शास्त्रीय संगीत का आनन्द अपना ही है। आभार।
आपने तो मानो साध पूरी कर दी, बचपन से आज तक इस गीत ने बड़ा मोहा है।
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