गुरुवार, 18 सितंबर 2008

महफ़िल सजी है सुख़नगोई की मलिका पुख़राज के संग

यूँ समझ लीजिये कि महफ़िल उरूज पर है और एक ओर सुख़नगो बैठे हैं, दूसरी ओर सुख़नफ़हम। इस ओर बैठी हैं मलिका पुख़राज। बात छिड़ी है ग़ालिब की। मलिका ने सुर साधे ही हैं और कह रही हैं ग़ालिब की ये ग़ज़ल:



जहां तेरा नक़्शे-क़दम देखते हैं
ख़ियाबां-ख़ियाबां इरम देखते हैं
दिल-आशुफ़्तगा ख़ाले-कुंजे-दहन हैं
सुवैदा में सैर-अदम देखते हैं
तेरे सर्वे-क़ामत से इक क़द्दे-आदम
क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं
तमाशा कर ऐ महवे-आईनादारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
सुराग़े-तुफ़े-नाला ले दाग़े-दिल से
कि शब-रौ का नक़्शे-क़दम देखते हैं
बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं।

6 टिप्पणियां:

siddheshwar singh ने कहा…

जी हुजूर सुन रहे हैं और दिखाई भी दे रहा है!!
अहुत अच्छा!!

एस. बी. सिंह ने कहा…

bahut vishisht rachanaa prastut ki saadhuvaad

अमिताभ मीत ने कहा…

बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं।
खुश कित्ता सुब्हो सुब्हो भाई.

Udan Tashtari ने कहा…

आअह्ह्ह्हाअ!!! आनन्द आ गया!!

पारुल "पुखराज" ने कहा…

bahut badhiyaa!!!

डॉ .अनुराग ने कहा…

बहुत खूब.....

 

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