आज गोपालबाबू फिर गा रहे हैं ज़रा छोटे ही अंतराल पर। इसके पीछे सिद्धेश्वर भाई का हाथ है। इस गीत का थीम भी विरह ही है और इसमें स्त्री घुघूती से गुहार कर रही है आम की डाल पर बैठकर न गाने के लिये क्योंकि उसकी घुर-घुर सुनकर स्त्री को अपने पति की बेतरह याद हो आती है जोकि सीमा पर युद्ध पर गया हुआ है। साथ ही ये दो कविताएँ (पहले का कवि मुझे ज्ञात नहीं और दूसरी बच्चन जी की है) भी बोनस में:
आओ कोई बहाना ढूँढें, जश्न मना लें आज की शाम
या फिर लिख दें इन लम्हों के सूरज-चाँद तुम्हारे नाम
कोई हंसता सा लड़का प्यार कहीं करता होगा
गहरे प्यार की उजली शामों का अमृत पीता होगा
बेमंज़िल जो चल सकते हैं उनके नाम उठाएँ जाम
या फिर लिख दें इन लम्हों के सूरज-चाँद तुम्हारे नाम
अगले साल इसी लम्हा हम जाने कैसे हाल में हों
कौन भुला दे, कौन पुकारे, किन शहरों के जाल में हों
ये सब जुगनु उड़ जाएंगे, पेड़ पे लिख लो इनके नाम
आओ कोई बहाना ढूँढें, जश्न मना लें आज की शाम
*************
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
जानता हूँ दूर है नगरी पिया की
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की
प्यार के पल की थकन भी तो मधुर है।
आग ने मानी न बाधा शैल वन की
गल रही भुजपाश में दीवार तन की
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है।
तृप्ति क्या होगी अधर के रस कणों से
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से
प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है।
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
या फिर लिख दें इन लम्हों के सूरज-चाँद तुम्हारे नाम
कोई हंसता सा लड़का प्यार कहीं करता होगा
गहरे प्यार की उजली शामों का अमृत पीता होगा
बेमंज़िल जो चल सकते हैं उनके नाम उठाएँ जाम
या फिर लिख दें इन लम्हों के सूरज-चाँद तुम्हारे नाम
अगले साल इसी लम्हा हम जाने कैसे हाल में हों
कौन भुला दे, कौन पुकारे, किन शहरों के जाल में हों
ये सब जुगनु उड़ जाएंगे, पेड़ पे लिख लो इनके नाम
आओ कोई बहाना ढूँढें, जश्न मना लें आज की शाम
*************
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
जानता हूँ दूर है नगरी पिया की
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की
प्यार के पल की थकन भी तो मधुर है।
आग ने मानी न बाधा शैल वन की
गल रही भुजपाश में दीवार तन की
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है।
तृप्ति क्या होगी अधर के रस कणों से
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से
प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है।
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
9 टिप्पणियां:
madhur..madhur/shabd bhi khiley khiley
ajib sa hai na.. "pyar".. sab apne tarike se ise paribhashit karte hain.. aur sari paribhashaien sahi bhi hain..
महेन भाई,
आपने मेरे अनुरोध को महत्व दिया, यह आपका बड़प्पन है.आनंद पाया.गोपालबाबू को सुनते हुए मैं अपनी किशोरावस्था को पार करते हुए युवावस्था वाले दिनों में पहुंच जाता हूं जब समतल-सपाट मैदानों को छोड़कर पढ़ने के लिए नैनीताल आया था और पहाड़ों ने ऐसा बांधा कि पूरे एक दशक तक वहीं बंधा रहा.
सिद्धेश्वर भाई,
संगीत का एक तत्व होता है हार्मनी। जिस गीत में यह तत्व ज़्यादा होता वह मेरे मन में (संभवत: सबके मन में) सबके प्रति अपार प्रेम उमड़ाता है। गीता दत्त और गोपालबाबू के गीत मुझे इसीलिये बेहद पसंद हैं। और फ़िर कोई किसी गीत की फ़रमाइश करे तो कैसे टाला जा सकता है? आखिरकार मैं यहाँ हूँ ही इसलिये कि लोगों को संगीत की विविधता का (अपने अतिसीमित संगीत-ज्ञान द्वारा) परिचय करवा सकूँ।
पहाड़ आसानी से किसी को भी बांध सकते हैं। एक समय मैं और मेरे एक मित्र अल्मोड़ा में सिर्फ़ एक दिन बिताने के बाद वहां से पोस्ट ग्रैजुएट करने की ठान चुके थे।
उत्तम है भाई.
यह गाना इरफ़ान ने भी पिछले बरस लगाया था अपने ब्लॉग पर. उसका लिंक यह रहा:
http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/2007/12/blog-post_13.html
गोपालबाबू ज़िन्दाबाद!
गोपालबाबू ज़िन्दाबाद!
इरफ़ान भाई की उस पोस्ट का उल्लेख मैनें गोपालबाबू वाली पिछली पोस्ट में किया था अशोक दा। अणकश: मज्जा आ गया हो।
mere lie to sidheshwar babu zindabad.. kyoki unhone anurodh kiya aur mahen babu zindabad kyoki unhone sunaya..
महेन भाई,
घुघूती बासूती पर इस गीत का लिंक देखा तो यहाँ आया - सुनकर बहुत अच्छा लगा.
गोपाल बाबू की मिश्री मधुर स्वर मेँ बिरह गीत की मधुरता मन मेँ बिरहन की पीडा को साक्षात कर रही है
और गीत सुनवायेँ उनके स्वर मेँ
लावण्या
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