जागर के बारे में मैं कुछ कहूँ इसकी ज़रूरत नहीं। आज एक ऐसे ब्लोग पर पहुँचा जहां जागर के सम्बंध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है। फिर भी इतना तो ज़रूर बताऊँगा कि यह गायन की ऐसी विधा है जिसके द्वारा देवताओं का आह्वाहन किया जाता है और उनसे अपनी समस्याओं का निदान करवाया जाता है।
यह जागर मैनें पिछले हफ़्ते ही अपने दूसरे ब्लोग पर लगाया था। यहाँ इसे लगाने के दो कारण हैं: एक तो विविध प्रकार के संगीत का साझा करने के उद्देश्य से यह ब्लोग बनाया गया है इसलिए कायदे से मुझे यहीं जागर भी पोस्ट करना चाहिये और दूसरा वे सभी लोग जो इस ब्लोग पर नियमित आते हैं ज़रूरी नहीं कि मेरे दूसरे ब्लोग पर भी जाते हों।
यूँ समझ लीजिये कि महफ़िल उरूज पर है और एक ओर सुख़नगो बैठे हैं, दूसरी ओर सुख़नफ़हम। इस ओर बैठी हैं मलिका पुख़राज। बात छिड़ी है ग़ालिब की। मलिका ने सुर साधे ही हैं और कह रही हैं ग़ालिब की ये ग़ज़ल:
जहां तेरा नक़्शे-क़दम देखते हैं
ख़ियाबां-ख़ियाबां इरम देखते हैं
दिल-आशुफ़्तगा ख़ाले-कुंजे-दहन हैं
सुवैदा में सैर-अदम देखते हैं
तेरे सर्वे-क़ामत से इक क़द्दे-आदम
क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं
तमाशा कर ऐ महवे-आईनादारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
सुराग़े-तुफ़े-नाला ले दाग़े-दिल से
कि शब-रौ का नक़्शे-क़दम देखते हैं
बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं।
एक आवाज़ जो इस देश के हज़ारों-हज़ार लोगों का स्वर बनी, एक स्वर जो अवसाद में, उल्लास में, यों कहें कि रोज़मर्रा के हर मूड में बतौर आदर्श लोगों के मानस में छाया रहा। अपने भीरु व्यक्तित्व की सतहों के नीचे छिपे नायक को कल्पना में जब भी लोगों ने सुरों में नहलाया, तो यही स्वर उनके ज़ेहन में अपने-आप, बग़ैर किसी प्रयास के उभरा।
मो. रफ़ी साहब ने जो चित्र अपनी गायकी से सजाए, वे कभी नहीं मिटने वाले। वह संयमित आवाज़ बचपन में भी मेरे लिये उत्सुकता का विषय थी। सोचता था, जिसकी आवाज़ ऐसी होगी वह दिखता कैसा होगा। जब देखा तो लगा यह तो कोई साधारण सा इंसान है, यह भगवानों की आवाज़ इसकी कैसे हो सकती है?
फिर कुछ समय बाद बी बी सी के लिये 1977 में किया गया उनका इंटरव्यु जब सुना तो कई दिनों तक विश्वास नहीं हुआ कि अपनी तानों से लोगों के अंतस गुंजायमान कर देने वाली इस आवाज़ के पीछे कितना साधारण, कितना मितभाषी और दुनियावी छलावों और पेंचों से दूर रहने वाला कैसा आमजन में घुल जाने वाला व्यक्तित्व छुपा हुआ है। सुनकर देखिये क्या यह वही आवाज़ है जो मुग़ल-ए-आज़म में हाई नोट्स पर यह गीत गा रही है?
पहले इन्टरव्यु:
अब यह गीत:
जिन्होनें ऐसे गीत रच डाले, उनके लिये क्या कहा जाए? शब्द तो छोटे पड़ जाएंगे। (इसलिये सिर्फ़ उनकी तस्वीरें देकर उन्हें याद कर रहा हूँ।)
ट्रैफ़िक पर लिखी दूसरी किस्त पर पाठक न मिलने की फ़्रस्टेशन में डूबते-उबरते हुए मैनें संगीत के अपने गोदाम में टटोलना शुरु किया तो फ़िल्मी संगीत के स्वर्णिम युग से ठीक पहले के दौर के गीतों पर नज़र गई।
यह वह युग था जो पारसी थियेटर की सपाट गायकी के प्रभाव से बाहर आकर अपनी पगड़ंडी खोद रहा था और गिरते-पड़ते अपनी दिशा तलाश रहा था। एक ओर पंकज मल्लिक, अनिल बिस्वास, आर सी बोराल, के सी डे आदि संगीत की नई परिभाषाएं गढ़ रहे थे तो दूसरी ओर नौशाद, जी एम दुर्रानी, सज्जाद हुसैन, एस डी बर्मन इत्यादि राजकुमारी, अमीरबाई कर्नाटकी, हुस्न बानो, गीता राय, कानन देवी, तलत और रफ़ी आदि के साथ नये आयाम तलाश रहे थे। ये सभी लोग कोशिश कर रहे थे कि फ़िल्मी संगीत शास्त्रीयता से परिपक्व हो और मैलोडी और हार्मनी में पगा भी हो।
यह जो गीत मैं आज लाया हूँ, उन गीतों में से जान पड़ता है, जिन्होनें निश्चित तौर पर रफ़ीमय स्वर्णिम युग के लिये एक परिपाटी तय की। 1946 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म "1857" में संगीत दिया था सज्जाद हुसैन ने और यह गीत अंजुम पीलीभीती ने लिखा था। गायकों की पहचान मैं नहीं कर सका। शुरु में रिकार्डिंग खराब है और कुछ हल्का भी सुनाई देता है। मगर मैं तो ट्रैफ़िक वाली पोस्ट पर लोगों के न जुटने से त्रस्त हूँ न तो इस ओर ध्यान नहीं दे रहा, आप भी मत दीजिये।
आज गोपालबाबू फिर गा रहे हैं ज़रा छोटे ही अंतराल पर। इसके पीछे सिद्धेश्वर भाई का हाथ है। इस गीत का थीम भी विरह ही है और इसमें स्त्री घुघूती से गुहार कर रही है आम की डाल पर बैठकर न गाने के लिये क्योंकि उसकी घुर-घुर सुनकर स्त्री को अपने पति की बेतरह याद हो आती है जोकि सीमा पर युद्ध पर गया हुआ है। साथ ही ये दो कविताएँ (पहले का कवि मुझे ज्ञात नहीं और दूसरी बच्चन जी की है) भी बोनस में:
आओ कोई बहाना ढूँढें, जश्न मना लें आज की शाम
या फिर लिख दें इन लम्हों के सूरज-चाँद तुम्हारे नाम
कोई हंसता सा लड़का प्यार कहीं करता होगा
गहरे प्यार की उजली शामों का अमृत पीता होगा
बेमंज़िल जो चल सकते हैं उनके नाम उठाएँ जाम
या फिर लिख दें इन लम्हों के सूरज-चाँद तुम्हारे नाम
अगले साल इसी लम्हा हम जाने कैसे हाल में हों
कौन भुला दे, कौन पुकारे, किन शहरों के जाल में हों
ये सब जुगनु उड़ जाएंगे, पेड़ पे लिख लो इनके नाम
आओ कोई बहाना ढूँढें, जश्न मना लें आज की शाम
*************
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
जानता हूँ दूर है नगरी पिया की
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की
प्यार के पल की थकन भी तो मधुर है।
आग ने मानी न बाधा शैल वन की
गल रही भुजपाश में दीवार तन की
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है।
तृप्ति क्या होगी अधर के रस कणों से
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से
प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है।
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
किसी-किसी के लेखन में अमरत्व का गुण इस कदर होता है कि भुलाए नहीं भूलता। सलीके से हिन्दी के पहले कवि अमीर खुसरो का लिखा कितने बरसों से गाने वालों के लिये इंस्पिरेशन रहा है। अब इस गीत को ही लीजिये। बचपन में जब वो फ़िल्मी गीत सुना था तो उसका मुखड़ा समझ में ही नहीं आया मगर बड़ा कर्णप्रिय लगा।
मेरा मानना है कि गीत अगर अर्थपूर्ण हो तो किसी भी संगीतकार के लिये उसे साध पाना आसान हो जाता है। "छाप तिलक सब छीनी रे" ऐसी ही एक रचना है। कितने ही वर्ज़न सुनाई पड़ते हैं इसके और हर एक एक से बढ़कर एक। अब इसी को लीजिये। मेहनाज़ के बारे में मैं नहीं जानता मगर उन्होनें यह गीत इतना बढ़िया गाया गया है कि एकदम बांध लेता है:
ग़ज़ल की बात हो और मलिका पुखराज की बात न हो तो बात अधूरी लगती है। राजेश की मेहरबानी से मलिका पुखराज को सुनने का मौका मिला था और पहली ही बार में "अभी तो मैं जवान हूँ" ज़बान पर चढ़ गया। मलिका की पुरकशिश आवाज़ जो दिमाग पर छाई तो फिर नहीं उतरी।
लंबे अरसे से नहीं सुना था। सोचा आप लोगों के बहाने मैं भी सुन लूँ। मलिका जैसा गाने वाला हो तो कुछ चुन पाना खुद एक चुनौती होता है कि क्या छोड़ें और क्या सुनें। इसलिए जिस पहली ग़ज़ल पर नज़र गई, वही सुना रहा हूँ। कभी महाराजा हरि सिंह के यहाँ दरबारी गायिका रही मलिका की यह ग़ज़ल बहुत पुरानी जान पड़ती है; कितनी पुरानी ये तो मैं भी नहीं जानता।
राइनहार्ड मे जर्मनी के प्रतिष्ठित गायक हैं जिन्होनें अपने गीतों के द्वारा लगभग हर विषय को आवाज़ दी है। वे अपने गीत खुद लिखते हैं और उनके गीतों में पर्याप्त काव्योचित गुण होते हैं।
जर्मनी, जहाँ पर बालीवुड और शाहरुख खान अपनी सशक्त पहचान बना चुके हैं वहाँ राइनहार्ड का अपनी खास आडियंस है। 1967 से लेकर आजतक वे लगभग हर दो साल में एक एलबम रिलीज़ करते रहे हैं। बरसों से शाकाहारी राइनहार्ड PETA के सदस्य हैं और उन्होनें इस विषय पर भी गाने लिखे और गाए हैं।
यह गीत Du bist ein Riese Max! बेहद काव्यात्मक अभिव्यक्ति और खूबसूरत संगीत के कारण मुझे बेहद पसंद है। मैं राइनहार्ड का एक दूसरा ही गीत आज पोस्ट करना चाहता था मगर मैनें देखा है कि जिस भाषा को लोग समझ नहीं सकते उसके गीतों को सुनने के लिये मेरे पोस्ट्स पर ज़्यादा लोग भी नहीं जुटते। यह निराशाजनक है मगर सच है। इसी वजह से मैनें इस गीत को, जोकि काफ़ी catchy है, आज पोस्ट करने का इरादा किया। गीत के बोलों के साथ मैनें उसका भावानुवाद भी नीचे लिख डाला है। आप खुद ही एक गीतकार के रूप में राइनहार्ड की कल्पनाशक्ति देख सकते हैं। यह गीत मैक्स नाम के एक प्रतीकात्मक बच्चे को संबोधित है। बाकी आप गीत पढ़कर समझ ही लेंगे।
Kinder werden als Riesen geboren,
Doch mit jedem Tag, der dann erwacht,
Geht ein Stück von ihrer Kraft verloren,
Tun wir etwas, das sie kleiner macht.
Kinder versetzen so lange Berge,
Bis der Teufelskreis beginnt,
Bis sie wie wir erwachs‘ne Zwerge
Endlich so klein wie wir Großen sind!
Du bist ein Riese, Max! Sollst immer einer sein!
Großes Herz und großer Mut und nur zur Tarnung nach außen klein.
Du bist ein Riese, Max! Mit deiner Fantasie,
Auf deinen Flügeln aus Gedanken kriegen sie dich nie!
Freiheit ist für dich durch nichts ersetzbar,
Widerspruch ist dein kostbarstes Gut.
Liebe macht dich unverletzbar
Wie ein Bad in Drachenblut.
Doch paß auf, die Freigeistfresser lauern
Eifersüchtig im Vorurteilsmief,
Ziehen Gräben und erdenken Mauern
Und Schubladen, wie Verliese so tief.
Du bist ein Riese, Max! Sollst immer einer sein!
Großes Herz und großer Mut und nur zur Tarnung nach außen klein.
Du bist ein Riese, Max! Mit deiner Fantasie,
Auf deinen Flügeln aus Gedanken kriegen sie dich nie!
Keine Übermacht könnte dich beugen,
Keinen Zwang wüßt‘ ich, der dich einzäunt.
Besiegen kann dich keiner, nur überzeugen.
Max, ich wäre gern dein Freund,
Wenn du morgen auf deinen Reisen
Siehst, wo die blaue Blume wächst,
Und vielleicht den Stein der Weisen
Und das versunkene Atlantis entdeckst!
Du bist ein Riese, Max! Sollst immer einer sein!
Großes Herz und großer Mut und nur zur Tarnung nach außen klein.
Du bist ein Riese, Max! Mit deiner Fantasie,
Auf deinen Flügeln aus Gedanken kriegen sie dich nie!
बच्चे बहुत कुछ लेकर पैदा होते हैं
उसके बाद हर दिन के साथ
खोता जाता है उनकी शक्ति का कुछ हिस्सा
हम सिखाते हैं उन्हें कुछ ऐसा जो कर जाता है उन्हें छोटा
बच्चे पहाड़ खिसकाते हैं
शैतानी खेल शुरु होने से पहले
पर अंतत: वे हम बड़ों जितने छोटे हो जाते हैं।
तुम बहुत बड़े हो, मैक्स! हमेशा ऐसे ही रहना
दिल बड़ा और खूब हिम्मत, बस छलावे के लिये छोटे दिखते हो
अपनी कल्पनाशक्ति के साथ तुम बहुत बड़े हो मैक्स!
तुम्हारे विचारों के डैने तुम्हें कभी अपने से अलग नहीं करेंगे।
तुम्हारी आज़ादी की जगह कुछ और नहीं ले सकता
विरोध तुम्हारी अनन्य शक्ति है
प्रेम तुम्हे पवित्र बनाता है
जैसे तेज़ाब में किया गया स्नान
मगर सम्हल कर रहना कि घात में हैं शिकारी
जो कब्र खोदते हैं और खड़ी करते हैं दीवारें
और अंधेरे गहरे कोने गढ़ते हैं
तुम बहुत बड़े हो, मैक्स! हमेशा ऐसे ही रहना
दिल बड़ा और खूब हिम्मत, बस छलावे के लिये छोटे दिखते हो
अपनी कल्पनाशक्ति के साथ तुम बहुत बड़े हो मैक्स!
तुम्हारे विचारों के डैने तुम्हें कभी अपने से अलग नहीं करेंगे।
कोई ताकत तुमको डिगा नहीं सकती
मैं नहीं जानता कोई विवशता जो तुम्हें बांध सके
कोई हरा नहीं सकता, सिर्फ़ यकीन जीत सकता है
मैं तुम्हारा दोस्त बनना चाहूँगा
कल जब तुम अपनी यात्रा पर निकलोगे
तुम देखोगे वे जगहें जहाँ नीले फूल खिलते हैं
और शायद पारस पत्थर
और खोजोगे डूबे हुए समंदर
तुम बहुत बड़े हो, मैक्स! हमेशा ऐसे ही रहना
दिल बड़ा और खूब हिम्मत, बस छलावे के लिये छोटे दिखते हो
अपनी कल्पनाशक्ति के साथ तुम बहुत बड़े हो मैक्स!
तुम्हारे विचारों के डैने तुम्हें कभी अपने से अलग नहीं करेंगे।
(नीचे की लाल रंग की बकवाद को आप चाहें तो स्किप कर सकते हैं और अगर चाहें तो सीधे गीत बजाना भी शुरु कर सकते हैं)
पहाड़ भूत की तरह मुझसे चिपके हैं हालांकि 14-15 सालों से सलीके से जाना बंद कर चुका हूँ या शायद जा नहीं पा रहा हूँ। मैं उस बेचारी पीढ़ी से हूँ जिनकी जड़ें पहाड़ों से जुड़ी हैं और जीवन शहरों से इसलिये मैं न तो पहाड़ी रह गया हूँ और न ठीक तरह से शहरी ही बन पाया हूँ।
बचपन में पिताजी टू-इन-वन में पहाड़ी-गढवाली गाने बजाया करते थे तो बहुत चिढ़ होती थी। जब अपने मन का करने की उम्र हुई तो वो सारी कैसेट्स उठाकर संदूक में डाल दीं। बंगलौर आने के बाद पहाड़ जाने के सारे अवसर बंद हो गए तो उन पहाड़ी गीतों की याद आने लगी।
गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत खोजने शुरु किये। अभी तक ज़्यादा का जुगाड़ नहीं हो पाया है। खैर। अगर आसान शब्दों में समझना चाहें तो गोपाल बाबू गोस्वामी को आप कुमाऊँ-गढवाल के मोहम्मद रफ़ी समझ सकते हैं। उनके गीत कुमाऊँनी चेतना का हिस्सा बन चुके हैं और लोग उनके गाए गीतों को अकसर कुमाऊँ के लोकगीत ही समझ लेते हैं। उनका गाया "बेड़ु पाको बारो मासा" (जिसका संगीत प्रसिद्ध कलाकार मोहन उप्रेती ने तैयार किया था) कुमाऊँ रेजिमेंट की धुन के रूप में अपनाया गया।
पिताजी बताते हैं कि उत्तरैणी के कौतिक (मेला) में जब वे गाते हुए चलते थे तो हज़ारों लोग उनके पीछे-पीछे गाते चलते थे। इस तथ्य की तस्दीक़ इरफ़ान भाई ने अशोक जी के द्वारा अपनी घुरू%20घुरू%20उज्याव%20है%20गो">एक पोस्ट में भी की है।
बहरहाल सुनें यह गीत। मनीआर्डर अर्थव्यवस्था वाले उत्तराखण्ड में अकसर पति शहरों में या फ़ौज में नौकरी करते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं अपना परिवार। विवाह होने पर पत्नी भी गांव में ही छूट जाती है। विरह-दग्ध इन स्त्रियों की मूक पीड़ा को अक्सर पहाड़ी गीतों में स्वर दिया जाता रहा है। गोपाल बाबू ने भी इस विषय पर गीत गाए हैं। यह गीत उसका एक उत्कृष्ट नमूना है। नीचे मैनें गीत के बोल लिख दिये हैं मगर आलस्य और समयाभाव के कारण अनुवाद नहीं कर रहा। मेरी कुमाऊँनी हास्यास्पद पाई जाती है और इस बोली में मेरा हाथ भीषण रूप से तंग है। नीचे लिखे गीत में अनिवार्य रूप से कुछ गलतियाँ होंगी। दोनो ही बातों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ।
कैले बजै मुरली हो बैंणा ऊंची ऊंची डान्यूँ मा
चिरी है कलेजी मेरी तू देख मन मा
मुरुली क सोर सुणी हिया भरी ऐगो
को पापी ल मेरो बैणा मन दुखै हैछो
स्वामी परदेसा मेरा उ जरीं लाम मा
कैले बजै मुरली हो बैंणा ऊंची ऊंची डान्यूँ मा
मेर मैथ की भगवती तू दैणी हजैये
कुशल मंगल म्यारा स्वामी घर लैये
नंगरा निसाड़ा ल्यूँलो देबी मैं तेरा थान मा
कैले बजै मुरली हो बैंणा ऊंची ऊंची डान्यूँ मा
भूमि का भूमिया देबा धर दिया लाज
पंचनामा देबो तुम सुणी लिया धात
गवै की चरेउ मेरी तुमरी छ हाथ
दगड़ रैया देबो स्वामी का साथ मा
कैले बजै मुरली हो बैंणा ऊंची ऊंची डान्यूँ मा
कुछ और पोस्ट करना था, कुछ और कर रहा हूँ। इसका कारण छोटे मियां हैं जिनको गहरी नींद से उठाने के लिये मुझे तरह-तरह के गीत बजाने पड़े। उसी प्रक्रिया में इस गीत पर नज़र गई जो एक अरसे से मैंने नहीं सुना था।
कुछ दो-एक साल पहले आफ़िस में मेरे डेस्क पर अरुण दाते (Arun Date) की एक सीडी पड़ी थी। मेरे एक कर्नाटकी सहकर्मी ने वह सीडी उठाई और बोला, "ये अरुण डेट कौन है?" आप हँस सकते हैं मगर मुझे दुख हुआ। ऐसी है हमारी अनभिज्ञता। दुनिया के दूसरे छोर पर बैठे जार्ज माइकल के समलैंगिक सम्बंध तो हमारे अखबारों की सुर्खियां बन जाते हैं मगर अपने ही प्रादेशिक कलाकार हमारे लिए लगभग अनजान रहते हैं।
अरुण दाते मराठी कला जगत में बहुत बड़े हस्ताक्षर हैं। उनके गाए कुछ गीत और भावगीतों को सुनने का अवसर मुझे मिला है। अपने गायन से वे एक सहज संसार बुनते हैं जो उसी सहजता से सुनने वालों तक प्रेषित भी होता है। उनको सुनना, उनसे संवाद करने जैसा लगता है और आपको महसूस होगा कि आप एक हद तक उनके व्यक्तित्व को समझ भी पा रहे हैं।
इस गीत में उनका साथ लता जी ने दिया है। गीत गंगाधर महांबरे का है और संगीत प. हृदयनाथ मंगेशकर ने दिया है। अफ़सोस मेरे पास इस गीत का अनुवाद नहीं है। सभी मराठी भाषी भाईयों-बहनों से गुज़ारिश है यहां मेरी मदद करने की। गीत मैंने नीचे दे दिया है।
संधीकाली या अशा, धुंदल्या दिशा दिशा,
चांद येइ अंबरी चांदराती रम्य या,
संगती सखी प्रिया, प्रीत होइ बावरी
मुग्ध तू नि मुग्ध मी, अबोल गोड संभ्रमी, एकरूप संगमी
रातराणीच्यामुळे, श्वास धुंद परिमळे, फुलत प्रीतिची फुले