बुधवार, 29 जून 2011

एक कहानी का आरम्भ और अंत

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John Denver had the ability to convey (love to be precise) more than the words in the song itself.
यही वजह है कि उसके गीत प्रेम में पगे लगते हैं; तब तो और भी जब वह प्रेम गीत गा रहा होता है। 'एनीज़ सॉंग' इसलिए ख़ास नहीं कि उसके शब्द बहुत अर्थवान हैं या उनमें  कमाल की पोएट्री है। नहीं, 'एनीज़ सॉंग' तबतक एक साधारण गीत है जबतक उसे जॉन डेनवर की आवाज़ में ना सुना जाए। यकायक दस मिनट के अन्दर लिख दिए गए इस गीत में बिलकुल साधारण शब्द हैं पर जिस तरह से जॉन ने इसे कम्पोज़ किया है और उससे भी महत्वपूर्ण जिस तरह से गाया गाया है वह इस गीत को युनीक बना देता  है। मुखड़े पर पहुँचने से पहले गिटार के स्ट्रिंग गीत की नीव को मज़बूत बनाते हैं जैसे उल्लास बहुत धीमे - धीमे ऊपर उठ रहा हो। फिर जॉन की आवाज़ बारिश के पानी की तरह फैलने लगती है। मगर ठहरिये, गीत अपने आवेग पर तब आता है जब जॉन पहले मुखड़े पर पहुँचता है।

जॉन ने यह गीत दस - पंद्रह मिनट में लिखकर ख़तम कर दिया था। लिखा था अपनी पहली पत्नी के लिए। इस गीत को सुनते हुए महसूस होता है जॉन अपनी पत्नी को कितना प्यार करता होगा और इस गीत को बनाते हुए वह एनी के प्यार में कितना तल्लीन रहा होगा। मुझे लगता है यह प्रेम की चरम अभिव्यक्ति है जो मैंने देखी है; महसूस की है।

मुझे मालूम नहीं मगर लगता है जॉन का दूसरा गीत 'द गेम इज़ ओवर' इस प्रेम के अंत की अभिव्यक्ति है। यह गीत भी उतना ही ज़रूरी है जितना 'एनीज़ सॉंग'। 'एनीज़ सॉंग' में ज़बरदस्त आवेग है तो 'गेम इज़ ओवर' में यह आवेग विस्थापित होकर मृत्यु के बाद की चुप्पी में बदल जाता है। इन दो गीतों को एक के बाद एक सुनना अपने आप में एक कहानी का आरम्भ और अंत लगता है; एक पूरी कहानी।



You fill up my senses like a night in the forest.
Like the mountains in spring time
like a walk in the rain
like a storm in the desert
like a sleepy blue ocean
You fill up my senses, come fill me again.

Come let me love you, let me give my life to you
Let me drown in your laughter, let me die in your arms.
Let me lay down beside you, let me always be with you.
Come let me love you, come love me again.




Time, there was a time
You could talk to me without speaking
You would look at me and I'd know
All there was to know

Days, I think of you
And remember the lies we told
In the night, the love we knew
The things we shared 
when our hearts were beating together

Days, that were so few
Full of love and you
Gone, the days are gone now
Days, that seem so wrong now

Life, won't be the same
Without you to hold again in my arms
To ease the pain and remember
When our love was a reason for living

Days, that were so few
Full of love and you
The game is over 

गुरुवार, 2 जून 2011

दूर दक्षिण से एक ताज़ातरीन गीत

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कुछ समय पहले उरुमी नाम से एक मलयालम फ़िल्म बनी थी. खूब चर्चा में भी रही; सिर्फ केरल में ही नहीं बाहर भी. एक कारण तो यह कि अब तक की यह दूसरी सबसे महँगी मलयालम फ़िल्म थी और दूसरा यह कि इस फ़िल्म की कहानी एक प्रसिद्ध योद्धा पर आधारित है. हालाँकि केलु नामक इस नायक के बारे में ऐतिहासिक तथ्य मौजूद नहीं हैं किन्तु उसके अस्तित्व को नाकारा भी नहीं जा सकता. माना जाता रहा है कि केलु नयनार को अमरीका जैसी आफ़त खोजने वाले वास्को ड गामा की हत्या का काम सौंपा गया था. हत्या का कारण निश्चित ही अमरीका की खोज नहीं था. सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में वास्को ड गामा पुर्तगाल की ओर से पुर्तगाली आधिपत्य वाले भारतीय भूभाग के वायसराय थे.

संतोष सिवान का नाम हिंदी सिनेमावालों के लिए नया नहीं है. असोका जैसी बेवकूफ़ाना फ़िल्म बनाने वाले सिवान ने कुछ बेहतरीन फ़िल्में भी बनायीं हैं जैसे तहान. उरुमी भी उन्ही की फ़िल्म है और फ़िल्म के कुछ दृश्य देखने के बाद मैं कह सकता हूँ कि सिनेमाटोग्राफी के कमाल को नाकारा नहीं जा सकता. संतोष पेशे से सिनेमाटोग्राफर हैं और इस फ़िल्म में सिनेमाटोग्राफी भी उन्हीं की है.

जानता हूँ बात खिंचती जा रही है फिर भी एक बात और जोड़ना ज़रूरी लग रहा है. कुछ अरसा पहले मेरे एक मलयालम मित्र ने मुझसे पूछा कि हिंदी फ़िल्मों में पश्चिमी वाद्यों का इस्तेमाल इतना ज़्यादा क्यों होता है? उसके सवाल पूछने की वजह मुझे मालूम थी इसलिए मैं उसकी जिज्ञासा शांत कर सका. ऐसा नहीं कि दक्षिण भारतीय फिल्मों में पश्चिमी वाद्यों का इस्तेमाल नहीं होता, मगर मलयालम सिनेमा मलयाली लोगों की ही तरह बाकी के दक्षिण भारतीय सिनेमा से कुछ हद तक अलग है. किसी भी वाद्य का इस्तेमाल हो मगर गीत सुनने में भारतीय ही लगता है. उरुमी फ़िल्म के कुछ गीत कर्णप्रिय हैं और मेरे ख़याल से ऐसा इसलिए है क्योंकि संतोष ने संगीतकार दीपक देव को पश्चिमी वाद्यों के इस्तेमाल से दूर रहने की हिदायत दी थी. इसका असर गानों में दीखता है और आपको लगेगा की आप वाकई सोलहवीं शताब्दी में बैठे ये गाने सुन रहे हैं. फ़िल्म के बाकी गीतों की बनिस्पत चिम्मी चिम्मी गीत ज़्यादा प्रसिद्ध हुआ है. इस फ़िल्म के संगीत की प्रसिद्धी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बंगलौर में जहाँ वैसे मलयाली गाने नहीं सुनाई देते, वहां भी चिम्मी चिम्मी यदा कदा सुनाई दे जाता है.

नीचे गीत का वीडियो लगा रहा हूँ जिससे सिनेमाटोग्राफी की भी थोड़ी झलक मिल जाये. साथ ही गीत के बोल भी. हिंदी तर्जुमे की उम्मीद इस ग़रीब के साथ ज्यादती होगी क्योंकि मलयालम को मैं भारत की सबसे ज़्यादा  विदेशी भाषा मानता हूँ. मेरे आधे से ज़्यादा सहकर्मी मलयाली हैं मगर कोई भी इस गीत का तर्जुमा करने को तैयार नहीं हुआ. ज़्यादातर लोग इस बारे में ही निश्चित नहीं थे कि गीत में चिम्मी चिम्मी कहा गया है या चिन्नी चिन्नी.
आखिर में यह भी बताता चलूं कि उरुमी का मतलब लचीली तलवार होती है. बाकी विकिपीडिया तो है ही.





Chimmi chimmi minni thilangana
vaaroli kannanukk
poovarash pootha kanakkane
anjunna chelanakk..
nada nada annanada kanda theyyam mudiyazhakum
nokk vellikinnam thulli thulumbunna chele..
(chimmi chimmi)
kolathiri vazhunna nattile valiyakarenne
kandu kothikum
illatholloramba kore neram kandu kaliyakum
samothiri kolothe anunga
mullapoo vasana ettumayangum
valittenne kannezhuthikkan varmukilodivarum
poorampodi paariyittum poorakaliyaditum
nokkiyilla nee ennitum neeyenthe
(chimmi chimmi)
poovambante ola chuvachoru
karimpuvillathe padathalava
vaaleduth veeshalle njanath murikin poovakkum..hmm
allimalar kulakadavile ayaluthi pennunga kandupidikum
nattunadappothavar nammale kettunadappakum
enthellam paditum mindathe mindittum
mindiyilla nee ennitum neeyenthe

मंगलवार, 10 मई 2011

देवो मोहे धीर

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मैं रोज़ रात को कुछ न कुछ संगीत सोने से पहले सुनता हूँ; खासतौर पर शास्त्रीय या उपशास्त्रीय संगीत. इसी सीरीज में आजकल पंडित कुमार गन्धर्व का गायन चल रहा है. यकीन जानिये अँधेरे कमरे में इस आवाज़ से दिव्य कुछ नहीं लगता.

ज़रा राग टोडी में इस बंदिश को सुनिए इस पावन स्वर में.






यह सिलसिला अभी जारी रखने का इरादा है. अगर आलस ने साथ न दिया तो आपको कुछ और पंडित जी की आवाज़ में ज़रूर सुनाया जायेगा.

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

चुपकी सी अजब शहर-ए-ख़मोशाँ ने लगाई

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आज कुछ अनचाहा घटा। सोचते-सोचते उन दिनों की ओर ख़याल चला गया जब  ऑल इंडिया रेडियो के एफ़ एम चैनल के सुनहरे दिन थे। बुधवार रात को एक प्रोग्राम आता था - 'आवाज़ और अंदाज़' - एक महिला और एक पुरुष स्वर। अब नाम भूल चला हूँ। बेहद संजीदा लोग; बेहद परिपक्व आवाज़ और संगीत का ज्ञान। उस प्रोग्राम में अक्सर बहुत सुंदर और अनसुना संगीत सुनने को मिलता था। जैसा प्रफुल्लित मन उन दिनों था वैसा कभी नहीं रहा शायद इसीलिये ध्यान उस ओर चला गया। ख़ैर - सब दिन एक समान नहीं रहते।

नय्यारा नूर की आवाज़ में एक गज़ल सुनी था जिसे मैं इतने सालों तक भूला रहा। दो-एक दिन पहले सोचा कि अब कुछ दिनों तक ताज़ा स्टॉक में से कुछ सुना जाए। नय्यारा नूर की ग़ज़लें लेकर बैठा तो यह गज़ल भी बज उठी। उन दिनों से यह गज़ल मेरे लिये हर कोण से जुड़ी है। साझा करने का मन हो उठा।



मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

याद पिया की आए…

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ठुमरी से मेरी पहली मुठभेड़ तकरीबन-तकरीबन कॉलेज जाने की उम्र में हुई थी, प्रहार फिल्म के ज़रिये। उस समय और उसके बाद के कुछ सालों तक ठुमरी या और किसी उपशास्त्रीय संगीत से कोई ख़ास साबका नहीं पड़ा। उस दौर में फ़िल्मी संगीत इस हद तक स्तरहीन हो चुका था कि उसके और घटिया होने की गुँजाइश नहीं बची थी। हम दोस्त पुराने फ़िल्मी गीत सुनते थे और वहाँ से होते हुए पुराने ग़ैर-फ़िल्मी संगीत की ओर मुड़े। फिर उधर से ग़ज़लों की ओर। इतना परिपक्व होने में भी कई साल लग गए कि शास्त्रीय संगीत की ओर रुख़ करते। ऐसे समय में यदा-कदा कोई ऐसी चीज़ सुनाई दे जाती कि यकीन होता शास्त्रीय संगीत से परहेज़ की या डरने की कोई वजह नहीं।

बात प्रहार फ़िल्म की हो रही थी, जिसमें शोभा गुर्टू जी की गाई ठुमरी 'याद पिया की आए' सुनी थी। आज कई दिनों बाद आइपॉड पर ठुमरी सुनने बैठा तो शफ़ल मोड पर यही ठुमरी गुर्टू जी की आवाज़ में चलने लगी। उसके ठीक बाद फिर से यही ठुमरी बड़े गुलाम अली साहब की आवाज़ में भी चल पड़ी।

तकनीक बहुत बड़ी नेमत है इसका ख़याल मुझे बार-बार संगीत के दिग्गजों को सुनते हुए होता है, जो अब हमारे बीच नहीं हैं या जिन्हे लाइव सुनने का इत्तेफ़ाक़ अभी हुआ नहीं है। आज भी जब यही ठुमरी ऐसे मूर्धन्य गायकों की आवाज़ में एक के बाद एक सुनने को मिली तो वैसा ही महसूस हुआ। तो ब्लॉग पर आज क्यों न दोनों ही आवाज़ों में यही ठुमरी लगाई जाए?











रविवार, 30 जनवरी 2011

एक कर्णप्रिय कन्नड़ गीत

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सन 2006 में एक कन्न्नड़ फ़िल्म रिलीज़ होती है, जिसके भविष्य के बारे में कोई आश्वस्त नहीं है। कारण? लगभग अनजान दिगदर्शक और उससे भी ज़्यादा अनजान नायक। फ़िल्म सिनेमा हॉल्स में आती है और जैसाकि कई फ़िल्मों के साथ हुआ है, रफ़्तार पकड़ती है और 90 लाख की लागत की फ़िल्म 76 करोड़ कमा लेती है; कन्नड़ सिनेमा के इतिहास में अभी तक का रिकार्ड। शायद यह गणित कई लोगों के पल्ले न पड़े मगर दक्षिण भारत में फ़िल्मों के लिये अद्भुत पागलपन होने के बावजूद कन्नड़ फ़िल्में अपने लिये अपेक्षित जगह नहीं बना सकी हैं। वे आज भी तमिल, तेलुगु और मलयालम फ़िल्मों के सामने दूसरे दरजे की ही ठहरती हैं। कर्नाटक में ही अन्य द्रविड़ भाषाओं की फ़िल्में ज़्यादा चलती हैं।



यह जो फ़िल्म है मुंगारु मलये या मुंगारु मड़ये न सिर्फ़ रिकार्ड बनाती है बल्कि कन्नड़ फ़िल्मों को एक दिशा भी देती है और एक तरह से कन्नड़ सिनेमा के लिये सर्वाइवल किट की तरह भी काम करती है। यह फ़िल्म नायक गणेश और दिग्दर्शक योगराज को कन्नड़ फ़िल्म इन्डस्ट्री की पहली कतार में खड़ा कर देती है। इस फ़िल्म की सफलता का बहुत बड़ा कारण इसका संगीत था। इस फ़िल्म के गाने पहले कन्नड़ गाने थे जो मैंने और कई उत्तर भारतीयों ने नोटिस किये; अद्भुत ताज़गी से भरे और बेहद कर्णप्रिय। आवाज़ जानी पहचानी लगी। फिर पता चला दो गीत सोनू निगम ने गाए हैं जोकि सबसे अधिक मक़बूल हुए। बाकी गीत भी प्रसिद्ध हुए हैं। सोनू निगम का नाम सुनकर हैरान न हों क्योंकि सिर्फ़ वही नहीं, हिन्दी पट्टी के कई और गायक इस ओर बहुत गीत गाते हैं। वैसे सोनू निगम का गाया अगर मुझे आजतक कुछ पसंद आया है तो वह इसी फ़िल्म के गीत हैं।
बहरहाल इस फ़िल्म का टाइटल ट्रैक मुंगारु मड़ये बाकी गीतों से ज़्यादा मशहूर हुआ है। वही सुना जाए आज।




अपने और आपके सुभीते के लिये मैनें नीचे गीत के बोल रोमन में लिख दिये हैं और उनका तर्जुमा हिन्दी में भी कर दिया है।

Mungaru Maleye
ओह सावन की पहली बारिश
Yenu ninna Hanigala Leele
तेरी बूँदों ने क्या जादू कर दिया

Ninna Mugila Saale, Dhareya Korala Premada Maale
तूने आकाश में ऐसे लकीर खींची, लगता है जैसे धरती के गले में प्रेम की माला
Suriva Olume Aajadi Malege, Preeti Moodide
झमझमाती बारिश के निर्झर बोध में प्रेम उमड़ रहा है
Yaava Chippinalli, Yaava Haniyu Muttaguvudo
जाने किस बूँद की सीप से मोती निकल आए
Olavu Yelli Kudiyoduvudo, Tiliyadagide
प्यार की कली कहाँ खिले मेरी समझ से परे है
Mungaru Maleye..
ओह सावन की पहली बारिश
Yenu ninna Hanigala Leele
तेरी बूँदों ने क्या जादू कर दिया

Bhuvi Kenne Tumba, Mugilu Surida Muttina Gurutu
जिस तरह आसमान पानी की बूँदें बरसा रहा है, धरती के गाल मोतियों के निशान से भर गये हैं
Nanna Yedeya Tumba, Avalu Banda Heggeya Gurutu
मेरा मन उसके आने की उत्सुकता से भरा हुआ है
Hegge Gegge Aa Savi Saddu, Premanadavoo
उसके पैरों की मीठी आमद, प्रेम की लय
Yede Mugilinalli, Rangu challi Nintalu Avalu
मेरे हृदय के आकाश में उसने रंग भर दिया है और वहाँ खड़ी है
Baredu Hesaru Kamanabillu, Yenu Modeyoo
उसका नाम लिखा है जैसे इन्द्रधनुष, आह कैसी बौछार है
Mungaru Maleye..
ओह सावन की पहली बारिश
Yenu ninna Hanigala Leele
तेरी बूँदों ने क्या जादू कर दिया


Yava Hanigalinda, Yava Nelavu Hasiraguvudo
किस बूँद से धरती का कौनसा हिस्सा हरा होगा
Yaara Sparshadindaa, Yara Manavu Hasivaguvudo..
किसके स्पर्श से किसकी आत्मा में प्रेम के अंकुर पनपेंगे
Yara Usirali Yara Hesaro Yaru Baredaro
किसकी साँसों में किसने किसका नाम लिख डाला है
Yava Preeti Huvu, Yara Hrudayadalli Ararluvudo
किसके प्रेम की कोंपल किसके हृदय में फूटेगी
Yaara Prema Poojege Mudipo, Yaru Balloro
किसका प्यार पूज्नीय है, कौन समझ सका है?
Mungaru Maleye..
ओह सावन की पहली बारिश
Yenu ninna Hanigala Leele
तेरी बूँदों ने क्या जादू कर दिया


Olava Chandamama Naguta Banda Manadangalake
खूबसूरत चाँद मेरे ज़ेहन में घूम गया
Preeti Belakinalli, Hrudaya Horatide Meravanige
प्रेम की रोशनी से दीप्त मेरा प्रेम एक यात्रा पर निकल पड़ा है
Avala Prema Doorinakadege, Preeti Payanavoo
उसकी प्रेम नगरी की ओर, प्रेम की यात्रा पर
Pranaya Doorinalli, Kaledu Hogo Sukava Indu
कुछ देर के लिये सुख तुम चले जाओ प्रेम नगरी से
Dhanyanaade Padedukondu Hosa Janmavoo
मैं एहसानमंद हूँ कि मुझे यह नया जन्म मिला
Mungaru Maleye..
ओह सावन की पहली बारिश
Yenu ninna Hanigala Leele
तेरी बूँदों ने क्या जादू कर दिया

सोमवार, 24 जनवरी 2011

जाऊँ मैं तोरे बलिहारी - पंडित भीमसेन जोशी को श्रद्धांजलि

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दो-दिन पहले पिछली पोस्ट लगाते हुए मालूम नहीं था कि इतनी जल्दी फिर एक पोस्ट लिखने बैठूँगा। यह उम्मीद तो कतई नहीं थी कि दु:ख के साथ ब्लॉग पर आना होगा। सुबह-सुबह अखबार में सबसे पहले पंडित भीमसेन जोशी जी के देहांत की खबर पर नज़र पड़ी। दिनभर टीवी पर उनके स्वर्गवास की खबर फ़्लैश होती रही। सभी ने कहा यह दु:खद समाचार है; एक युग का अंत है।
निश्चित ही एक युग का अंत है। मुझ जैसों के लिए तो इस युग से पहले शून्य था, बाद में भी शायद शून्य ही रहेगा। पं भीमसेन जोशी, पं जसराज, कुमार गंधर्व, सुब्बुलक्ष्मी, पं छन्नूलाल मिश्रा जैसे नामों ने इस युग को गढ़ा था, इनके साथ ही शायद इस युग का अंत हो जाए। पंडित जी ने कबीर को कितना गाया था, कितना मराठी में गाया था। सब अच्छा लगता था। इससे पहले एक ही बार उनका गाया यहां पोस्ट करने का इत्तेफ़ाक़ हुआ था। जब शास्त्रीय संगीत से गजभर की दूरी रखता था तब भी कही पंडित जी की आवाज़ में कोई भजन गाहे-बगाहे सुनाई दे जाता तो झट से उनकी आवाज़ को पहचानने की कोशिश करता जैसे अपने प्रिय फ़िल्मी गायकों की आवाज़ को पहचानता था।
देह नहीं है, आवाज़ तो रहेगी। पंडित जी की राग वृंदावनी सारंग में गाई यह रचना बहुत पसंद की जाती रही है और मुझे भी बेहद भाती है। श्रद्धांजली के रूप में वही पोस्ट कर रहा हूँ।


शनिवार, 22 जनवरी 2011

न्यौली और जोड़

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"कट्न्या-कट्न्या पौलि ऊँछौ चौमास कौ बन
बग्न्या पाणी थामी जांछौ नी थामीनौ मन"

ये पंक्तियां मुझे एकाधिक कुमाऊँनी गीतों/लोकगीतों में सुनाई दीं और मुझे यह जानकर हैरानी भी हुई और सुख भी कि लोकगीत कितनी सफलता से काव्यात्मक भी रहे हैं। इन पंक्तियों का अर्थ है कुछ यूँ है:

"बार बार कटते रहने पर भी चतुर्मास का वन फिर फिर पनप जाता है,
बहता पानी तो थम जाता है मगर मन नहीं थमता"

ऊपर लिखी पंक्तियां जोड़ कहलाती हैं। जोड़ में पहली और दूसरी पंक्ति में अकसर कोई परस्पर संबंध नहीं होता। यह आप अनुवाद पढ़कर समझ ही गए होंगे। उत्तराखण्डी लोकगीतों में जोड़ डालने की परंपरा है। जहां तक मेरी जानकारी है जोड़ डालने की परंपरा न्यौली गीतों में रही है जोकि मूलत: विरहगीत होते हैं। लोग जब लकड़ी काटने जंगलों में जाया करते थे तो न्यौली गाई जाती थी। एक ओर एक ने कोई जोड़ डाला तो प्रत्युतर में दूसरी ओर से कोई और जोड़ डालता था। ऐसा नहीं कि जोड़ पुराने ही दोहराए जाते थे। अकसर तात्कालिक रचे जाते। मनोरंजन और अभिव्यक्ति की यह परंपरा किसी ज़माने में बहुत समृद्ध रही होगी। मगर अब सब बहुत तेजी से बिसराया जा रहा है। अज्ञेय की कविता कुछ यूँ थी…

"जहां तक दीठ जाती है
फैली हैं नंगी तलैटियाँ
एक-एक कर सूख गए हैं
नाले, नौले और सोते
कुछ भूख, कुछ अज्ञान, कुछ लोभ में
अपनी संपदा हम रहे हैं खोते
ज़िदंगी में जो रहा नहीं, याद उसकी
बिसूरते लोकगीतों में
कहां तक रहेंगे संजोते?"

मैं अज्ञेय से इत्तेफ़ाक़ न रखते हुए एक कुमाऊँनी गीत यहां लगा रहा हूँ। पुरूष स्वर गोपालबाबू गोस्वामी जी का है। महिला गायक कौन हैं मुझे पता नहीं। मतलब के पीछे ज़्यादा न भागें। इतना जान लेना पर्याप्त होगा कि पति अपनी पत्नी से कह रहा है कि उसे छोड़कर मायके न जाए।

पुनश्चः: यह गीत न्यौली नहीं है और न ही इसमें जोड़ हैं।



 

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