बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

चुपकी सी अजब शहर-ए-ख़मोशाँ ने लगाई

आज कुछ अनचाहा घटा। सोचते-सोचते उन दिनों की ओर ख़याल चला गया जब  ऑल इंडिया रेडियो के एफ़ एम चैनल के सुनहरे दिन थे। बुधवार रात को एक प्रोग्राम आता था - 'आवाज़ और अंदाज़' - एक महिला और एक पुरुष स्वर। अब नाम भूल चला हूँ। बेहद संजीदा लोग; बेहद परिपक्व आवाज़ और संगीत का ज्ञान। उस प्रोग्राम में अक्सर बहुत सुंदर और अनसुना संगीत सुनने को मिलता था। जैसा प्रफुल्लित मन उन दिनों था वैसा कभी नहीं रहा शायद इसीलिये ध्यान उस ओर चला गया। ख़ैर - सब दिन एक समान नहीं रहते।

नय्यारा नूर की आवाज़ में एक गज़ल सुनी था जिसे मैं इतने सालों तक भूला रहा। दो-एक दिन पहले सोचा कि अब कुछ दिनों तक ताज़ा स्टॉक में से कुछ सुना जाए। नय्यारा नूर की ग़ज़लें लेकर बैठा तो यह गज़ल भी बज उठी। उन दिनों से यह गज़ल मेरे लिये हर कोण से जुड़ी है। साझा करने का मन हो उठा।



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