शनिवार, 22 जनवरी 2011

न्यौली और जोड़

"कट्न्या-कट्न्या पौलि ऊँछौ चौमास कौ बन
बग्न्या पाणी थामी जांछौ नी थामीनौ मन"

ये पंक्तियां मुझे एकाधिक कुमाऊँनी गीतों/लोकगीतों में सुनाई दीं और मुझे यह जानकर हैरानी भी हुई और सुख भी कि लोकगीत कितनी सफलता से काव्यात्मक भी रहे हैं। इन पंक्तियों का अर्थ है कुछ यूँ है:

"बार बार कटते रहने पर भी चतुर्मास का वन फिर फिर पनप जाता है,
बहता पानी तो थम जाता है मगर मन नहीं थमता"

ऊपर लिखी पंक्तियां जोड़ कहलाती हैं। जोड़ में पहली और दूसरी पंक्ति में अकसर कोई परस्पर संबंध नहीं होता। यह आप अनुवाद पढ़कर समझ ही गए होंगे। उत्तराखण्डी लोकगीतों में जोड़ डालने की परंपरा है। जहां तक मेरी जानकारी है जोड़ डालने की परंपरा न्यौली गीतों में रही है जोकि मूलत: विरहगीत होते हैं। लोग जब लकड़ी काटने जंगलों में जाया करते थे तो न्यौली गाई जाती थी। एक ओर एक ने कोई जोड़ डाला तो प्रत्युतर में दूसरी ओर से कोई और जोड़ डालता था। ऐसा नहीं कि जोड़ पुराने ही दोहराए जाते थे। अकसर तात्कालिक रचे जाते। मनोरंजन और अभिव्यक्ति की यह परंपरा किसी ज़माने में बहुत समृद्ध रही होगी। मगर अब सब बहुत तेजी से बिसराया जा रहा है। अज्ञेय की कविता कुछ यूँ थी…

"जहां तक दीठ जाती है
फैली हैं नंगी तलैटियाँ
एक-एक कर सूख गए हैं
नाले, नौले और सोते
कुछ भूख, कुछ अज्ञान, कुछ लोभ में
अपनी संपदा हम रहे हैं खोते
ज़िदंगी में जो रहा नहीं, याद उसकी
बिसूरते लोकगीतों में
कहां तक रहेंगे संजोते?"

मैं अज्ञेय से इत्तेफ़ाक़ न रखते हुए एक कुमाऊँनी गीत यहां लगा रहा हूँ। पुरूष स्वर गोपालबाबू गोस्वामी जी का है। महिला गायक कौन हैं मुझे पता नहीं। मतलब के पीछे ज़्यादा न भागें। इतना जान लेना पर्याप्त होगा कि पति अपनी पत्नी से कह रहा है कि उसे छोड़कर मायके न जाए।

पुनश्चः: यह गीत न्यौली नहीं है और न ही इसमें जोड़ हैं।



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