शनिवार, 9 अगस्त 2008

चीख और हुल्लड़ के बीच संगीत

संगीत पर दिमाग देना भी उतना ही ज़रूरी है जितना कान देना। काफ़ी दिनों से सिर्फ़ गाने, ग़ज़लें ही पोस्ट किये जा रहा था और संगीत पर कुछ विचार जो मैनें काफ़ी अरसे से सहेज कर रखे हुए थे, उनको पोस्ट करना स्थगित किये जा रहा था।
विनोद भारद्वाज कुछ अरसे तक नवभारत टाइम्स में विभिन्न विषयों पर छोटे-छोटे मगर काफ़ी विचारोत्तेजक लेख लिखते रहे। आज पढ़ते हैं संगीत के बदलते स्वरूप पर उनके तात्कालिक विचार। यह छोटा सा आलेख बारह साल पहले मार्च 1996 में छपा था मगर इसकी प्रासंगिकता आज बढ गई है।

एक प्रसिद्ध पश्चिमी मानवशास्त्री ने कहीं कहा था कि एक समाज शायद चित्रकला के बिना रह सकता है लेकिन संगीत के बिना रहना उसके लिये असंभव है। वैसे तो प्रागैतिहासिक गुफा चित्र यह बात अच्छी तरह से बताते हैं कि आदिम मनुष्य भी रचना को अपने लिये जरूरी मानता था पर शायद संगीत एक अधिक केंद्रीय और जरूरी अभिव्यक्ति है। वैसे अगर हम 'केंद्रीय विधा' सरीखी बहसों में न उलझें (एक जमानें में हिंदी आलोचक इस पर बहस करते थे कि कविता केंद्रीय विधा है या कहानी), तो भी संगीत के पक्ष में कुछ महत्वपूर्ण बातें की जा सकती हैं। पश्चिम के एक अध्ययन में एक दिलचस्प तथ्य सामने आया था कि मोत्सार्ट का संगीत सुनकर व्यक्ति अधिक बुद्धिमान और 'सभ्य' हो जाता है। शायद इस बात का मतलब यह नहीं है कि आप ज्यों ही मोत्सार्ट सुनना शुरू करेंगे त्यों ही आपकी आई क्यू बढ़ जाएगी पर इस तथ्य से कौन इनकार करेगा कि संगीत हर तरह के आदमियों की मानसिकता को उद्वेलित करता है, उसे बेहतर बनाता है। कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी को सुनकर श्रोता निश्चय ही एक बुद्धिमान और बेहतर इंसान बनता है। इस तरह का श्रेष्ठ संगीत श्रोता रुलाता भी है और उसे आम ज़िंदगी से ऊपर भी ले आता है। अच्छा संगीत सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं है - विचार भी है। मीठा और सजावटी संगीत चित्त को प्रसन्न करता है। पर जिस संगीत में विचार भी हो वह मानसिकता को प्रसन्नता से भी परे ले जाता है। मिसाल के लिये जब मैं किशोरी अमोनकर का गाया राग भूप सुनता हूँ तो लगता है कि जैसे गायिका आपको विचार भी दे रही है। शायद इसीलिये कहा गया है कि श्रेष्ठ संगीत बुद्धिमान बनाता है।

एक हिंदी कवि ने अपनी कविता में कहा था कि सड़क पर साधारण काम करने वाला मकैनिक अगर हजारा सिंह का गिटार सुन कर बहुत प्रसन्न और मगन है, तो इस संगीत-अनुभव को भीमसेन जोशी सुनने वाले तथाकथित श्रेष्ठ श्रोताओं के अनुभव से खराब क्यों माना जाए? इस सवाल में एक तरह की सच्चाई है। साधारण जन का संगीत से प्रेम विशिष्ट श्रोताओं से कम नहीं है। दरअसल विशिष्ट श्रोताओं की भी एक महान नकली दुनिया है। सिर्फ़ संगीत की दुनिया में ही नहीं कला, सिनेमा, साहित्य आदि की दुनिया में भी फ़ैशनेबल और हाइब्रो होने का नकली दिखावा सामने आता रहा है।

अंग्रेज़ी कवि टी एस एलियट की एक प्रसिद्ध कविता में कहा गया है कि प्रदर्शनी में 'स्त्रियां आ जा रही हैं और मिकेलांजेलो के बारे में बतिया रही हैं।' यहां कवि फ़ैशनेबल कला रसिकों पर चोट कर रहा है- स्त्रियों पर नहीं। धनी और फ़ैशनेबल वर्ग की पार्टियों में हुसैन, गणेश पाइन या रविशंकर की बात कर के लोग अपने को उम्दा टेस्ट रखने वाला साबित करते हैं। लेकिन इस तरह के फ़ैशनेबल लोग सच्चे और गंभीर किस्म के कला रसिकों की दुनियां निरर्थक नहीं बना देते हैं।

हाल में एक फ़्रांस के अध्ययन के बारे में पढ़ा था कि पश्चिम की युवा पीढ़ी भयंकर रुप में तेज़ाबी और शोर से भरे संगीत को सुन कर बहरी हो रही है। किशोर वाकमैन या डिस्कमैन पर जो शोर से भरा संगीत सुन रहे हैं वह उनके कान के पर्दों पर सीधा प्रहार कर रहा है। महान जर्मन संगीतकार लुडविग फ़ान बिथोवन अपने अंतिम वर्षों में बहरे हो गए थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उनकी कालजयी रचना नवीं सिंफ़नी का पहला कार्यक्रम समाप्त हुआ था, तो वह श्रोताओं की प्रशंसा में बजायी गई तालियों के शोर को भी सुनने लायक नहीं रह गए थे। लेकिन बिथोवन दूसरे कारणों से बहरे हुए थे। आज के युवा श्रोता अगर तथाकथित 'हैडबैंगर' (सरतोडू) संगीत को सुन कर अपने कान के परदे भी फोड़ने के लिये तैयार हैं तो यह एक अलग तरह की समस्या है। इसका सम्बन्ध पश्चिम की अत्यधिक यंत्रविधि पर आश्रित और उपभोक्तावाद की कैदी हो चुकी सभ्यता से भी है। वहां का युवा वर्ग विलाल्दी या मोत्सार्ट के कर्णप्रिय संगीत से आसानी से अपने आप को जोड़ नहीं पाता है। एक तेज़ाबी और शोर से भरी हुई नशीली दवाओं की दुनिया में आत्मघाती ढंग से खोई हुई संवेदना उसे अपनी लगती है।

पश्चिम के सबसे लोकप्रिय संगीत चैनल एम टी वी अपने विज्ञापनों में यह बात गर्व से कहता है कि 'हम अच्छे टेस्ट के कारण नहीं पहचाने जाते हैं।' यानी अच्छा, संतुलित कर्णप्रिय, विचारशील संगीत आप ही को मुबारक हो-हम तो सरतोड़ू संगीत के रसिया हैं। इस तरह का संगीत गैर पश्चिमी देशों में भी लोकप्रिय हुआ है।

एक ज़माने के सोवियत संघ की लौह दीवार भी पॉप संगीत से बच नहीं सकी थी। चेकोस्लोवाकिया आदि देशों में युवा वर्ग सत्ता से अपना विरोध दिखाने के लिये भी पॉप संगीत की शरण में चला जाता था। वहां बाकयदा अंडरग्राउंड संगीत में पॉप संगीत का मिजाज़ एक अलग तरह की 'डिसिडेंट' मानसिकता से जुड़ा था।

दरअसल एम टी वी का विज्ञापन जब 'गुड टेस्ट' पर सीधा हमला करना चाहता है, तो उसका एक अर्थ व्यवस्था से विरोध ज़ाहिर करने में भी है। पश्चिमी उपभोक्ता समाज के ऊबे हुए किशोर साठ के दशक में जब 'ट्यून इन, टर्न ऑन, ड्राप आउट,' के आकर्षक नारों से चमत्कृत हुए थे, तो वे एक साइकेडेलिक दुनिया में चले गए। लड़ने के इरादे से नहीं, बल्कि वे यथार्थ से भागना चाहते थे। नशीली दवाओं, तेज़ संगीत ने उन्हें एक अंधेरे बंद कमरे से दूसरे बंद कमरे में जाने की राह दिखाई। साठ के दशक में बीटल्स का संगीत उस दौर में एक तरह का प्रोटेस्ट नज़र आता था। पर आज के तेज़ाबी, तामसी और 'राक्षसी' हैवी मैटल संगीत के सामने अब बीटल्स के गाने कर्णप्रिय और अर्थपूर्ण दिखाई देने लगे हैं।

बीटल्स
गायकों ने पंडित रविशंकर के सितारे और महर्षि महेश योगी के मेडीटेशन में भी दिलचस्पी ली थी। दिलचस्प बात यह है कि आज पंडित रविशंकर एम टी वी की आलोचना कर रहे हैं और दूसरे शास्त्रीय संगीतकार उन पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले पॉप संगीत का गुरु बनने की कोशिश की थी। आज जब ध्वनि प्रदूषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है तो 'चीख' और 'हुल्लड़' में फ़र्क करने की एक जेनुइन ज़रूरत भी नज़र आ रहा है।

- विनोद भारद्वाज

4 टिप्पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सार्थक एवं विचारणीय आलेख. आभार प्रस्तुत करने का.

बालकिशन ने कहा…

सार्थक एवं विचारणीय आलेख. आभार प्रस्तुत करने का.

सुशील छौक्कर ने कहा…

विनोद जी का एक अच्छा लेख पढवाने का शुक्रिया।

डॉ .अनुराग ने कहा…

उम्र के साथ आपका संगीत चुनाव भी कई बार बदलता है ,कई बार हालात के मुताबिक भी.....यदि आम हिन्दुस्तानी को beatels के कुछ गीतों का अर्थ समझा दिया जाए तो शायद वे ओर पोपुलर हो जाए

 

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