गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

गुलाब के खिलने तक

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नाना मौस्कुरी का ज़िक्र यहाँ पहले भी हो चुका है और हमनें वादा भी किया था कि अगली बार उनका गाया "White Roses from Athens" aka "Weisse Rosen von Athens" सुनाया जाएगा। यह एक अद्भुत गीत है और बार बार सुनने का मन करता है।

जर्मनी में १९६१ में ग्रीस के बारे में एक डोक्युमेंटरी बनी थी, जिसके लिए नाना ने यह गीत, जो दरअसल एक लोकधुन पर आधारित है, गाया था। जर्मनी में यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ और आज भी वहां यह नाना के नाम का पर्याय है।



सोमवार, 27 अप्रैल 2009

बानू का जाना

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ब्लॉग पर मेरी उपस्थिति ना के बराबर चल रही है और इसी के चलते मुझे बानू के इंतेकाल के बारे में कबाड़खाना पर नज़र दौड़ते हुए काफ़ी देर से पता चला। अजीब ही सी बात है कि पिछली ही पोस्ट से इकबाल बानो का आगाज़ प्रत्येक वाणी पर हुआ था।
जब मैंने उन्हें सुनना शुरू किया तबतक ख़राब तबीयत के चलते वे गाना बंद कर चुकी थीं और अंत तक उनका गाना लगभग बंद ही रहा मगर भला हो तकनीक का, कि उनके बाद भी हम और हमारे बच्चे ऐसे कलाकारों और उनकी रचनाओं से महरूम नहीं रहेंगे। इकबाल बानो को श्रद्धांजलि ग़ालिब की इस ग़ज़ल के साथ।





दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है क्या कहिये
ये ज़िद, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिये
रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है क्या कहिये
ज़िह-ए-करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है क्या कहिये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये
उन्हें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है क्या कहिये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है क्या कहिये
कहा है किसने कि "ग़ालिब" बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

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बरसों पहले इकबाल बानो की एक कैसेट एक दुकान पर दिखी। तबतक उनका नाम नहीं सुना था और खरीदने की एकमात्र वजह यह थी कि कैसेट मेरे बजट में थी और थोड़ी सी जिज्ञासा मेहदी हसन और फरीदा खानम के अलावा किसी और पाकिस्तानी गायक की ग़ज़ल सुनने की।

जैसाकि हमेशा होता है पहली बार में प्रभावित नहीं हुआ और तबतक अप्रभावित रहा जबतक फैज़ की नज़्म "हम देखेंगे" पढ़ी नहीं और पढ़कर उसे इकबाल बानो की आवाज़ में सुना नहीं। इस तरह की नज्में भारत में क्यों नहीं गई जाती, यह एक सवाल है। इसके उत्तर में न पढ़ा जाए और यही नज़्म सुनी जाए अब।





हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे-गराँ
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ऐ-ख़ुदा के का'बे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले-सफ़ा, मरदूद-ऐ-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराए जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी हैं, नाज़िर भी
उट्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा खल्के-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

आए न बालम

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अभी तक तो कोई भी शुद्ध शास्त्रीय संगीत पर आधारित पोस्ट इधर चस्पां नहीं की है। सो आज जो टटोलने लगा तो एकाएक नज़र बड़े गुलाम अली साहब पर पड़ी। ऐसा कलाकार हो तो क्या छोड़ा जाए और क्या चुना जाए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता। वे चुनाव से ऊपर की चीज़ हो जाते हैं। कोई भी बंदिश, कोई भी टुकड़ा उठा लीजिये मनभावन ही होगा। तो फ़िर हम सेमी-क्लासिकल पर ही अटक गए।



"का करूँ सजनी आए न बालम" येसुदास जी की आवाज़ में किसने नहीं सुना होगा और किसे नहीं भाया होगा? दरअसल यह एक ठुमरी है जिसे बड़े गुलाम अली साहब ने गाया है। ज़ाहिर है फ़िल्म में इसमें थोड़ा बदलाव किया गया है। खान साहब का नाम आता है तो इस ठुमरी का नाम भी ज़रूर आता है। यहाँ ब्लॉग पर खान साहब का आगाज़ करने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है? ठुमरी के तुंरत बाद ही एक छोटी सी बंदिश राग मालकौस में है।





गुरुवार, 19 मार्च 2009

सुस्वरलक्ष्मी का आठवां सुर

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दक्षिण में रहते हुए कर्णाटक संगीत मुझे बार-बार आकर्षित करता है, खासकर मंदिरों में बजता हुआ संगीत। अगर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत श्रृंगार प्रधान है तो कर्नाटक संगीत भक्ति प्रधान। ऐसा नहीं कि गोदावरी पार करने से पहले मेरा कभी कर्णाटक संगीत से साबका नहीं पड़ा हो। वास्तव में तो अगर हलंत पर अपनी पिछली पोस्ट की तर्ज़ पर बात करूँ तो कर्णाटक संगीत से कुछ बहुत विशेष और बेहद निजी यादें जुड़ी हैं; खासकर एम एस सुब्बुलक्ष्मी के गायन से जो चाहे-अनचाहे सुब्बुलक्ष्मी को सुनते हुए साथ साथ रहती हैं। सुब्बुलक्ष्मी का गायन मेरे लिए कई चीज़ों का पर्याय हो चुका है। कुछ दिनों पहले बार बार सुब्बुलक्ष्मी को सुन रहा था और लगता है वह सिलसिला अब दोबारा शुरू होने वाला है।




कर्णाटक भक्ति संगीत श्रीमती जी को भी बेहद पसंद है और इसी के चलते घर पर तरह तरह का दक्षिण भारतीय भक्ति संगीत इक्कठा होता रहता है। इसलिए सोचा कि आज ब्लॉग पर सुब्बुलक्ष्मी के गायन को स्थान मिलना चाहिए।




सोमवार, 9 मार्च 2009

ख़ुद तेरी लागली

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कुछ ख़ास नहीं...

डेढ़ महीने की इस ब्लॉग से छुट्टी के बाद आज अचानक ही मैदान में उतर आया। दरअसल काम की व्यस्तता और कमर का दर्द एक ही रफ़्तार से बढ़ते रहे और ठीक से कुछ भी नहीं हो पा रहा था। अब भी कोई अन्तर नहीं पड़ा है मगर लगा दोस्त कहीं नाराज़ न हो जाएँ। मैं तो पूरे महीने सिर्फ़ और सिर्फ़ शास्त्रीय संगीत ही सुनता रहा।

विरह गीतों की परम्परा में गोपाल बाबू के दो बहुत ही प्रसिद्ध और बहुत ही कर्णप्रिय कुमाउनी गीत यहाँ पहले लगाए थे। जो दर्जा गोपाल बाबू को कुमाऊं में प्राप्त है वैसा ही नरेन्द्र सिंह नेगी जी को गढ़वाल में है। केसेट से सीडी और सीडी से ऑनलाइन संगीत के कई दौर पार करके नरेंद्र सिंह जी आज भी नाच-गा रहे हैं। यह जो गीत नीचे है वह उनके करीयर का शुरुआती है।

गीत में बाँसुरी की पहली ही तान गीत के मूड को सेट कर देती है। इस गीत को सुनकर मुझे बचपन में गाँव में पिकनिक जैसे बिताये दिनों की गहराती और अंततः घुप्प होती शामें याद आ जाती हैं। उन शामों में टूटता मन और रोमांचित करता डर घुला होता था। गीत सुनते हुए अब भी सब कुछ वैसा ही लगता है।



मंगलवार, 27 जनवरी 2009

"आबार हाबेतो देखा" मन्ना दे के स्वर

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मन्ना दे जी पर किसी फोरम में चर्चा चल रही थी। सवाल था कि क्या बॉलीवुड में मन्ना दादा की उपेक्षा हुई? कुछ लोगों का मानना था कि उनकी उपेक्षा हुई और कुछ का मानना था कि यह सही नहीं है। हलाँकि मेरा मानना है कि उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार गाने का मौका नहीं मिला मगर साथ ही इस तरह की चर्चा मुझे बचकानी लगी। किसी कलाकार की योग्यता इससे कैसे साबित होगी कि उसने क्या गया? वह तो इससे साबित होगी कि वह क्या गा सकता है या गा सकता था।
उस चर्चा में कुछ लोगों ने कहा कि मन्ना दे जी ने हिन्दी से बाहर बाक़ी भाषाओं में काफी गया है, खासकर बांग्ला में। तब मुझे लगा कि उनके गीत ढूँढने चाहिए। कुछ और ढूंढ़ना शुरू किया तो यह जानकर हैरत हुई कि उन्होंने मलयालम में भी काफी गीत गाए हैं और सबसे ज्यादा हैरत तब हुई जब पता लगा कि वे मुझसे ५-7 किलोमीटर भर की दूरी पर बंगलौर में ही रहते हैं. बाक़ी खोजबीन बाद में। फिलहाल इस खोज की खुशी में यह बांग्ला गीत मन्ना दे जी की आवाज़ में:




शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

ख़ैर मिज़ाजे हुस्न की यारब

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बेहद आसान से शब्दों में कैसे मानी भरे जाते हैं मलिका-ऐ-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर से बेहतर कौन जानता होगा? जो कई बार सायास लगता है वह कितनी सहजता से बेग़म अख़्तर निभा लेती हैं इसका एक नमूना देखिये जिगर मुरादाबादी की इस अत्यन्त खूबसूरत ग़ज़ल में...







नीचे पूरी ग़ज़ल ही दे रहा हूँ। बेग़म अख़्तर ने ग़ज़ल के पाँच शेर गाए हैं।
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन।
कामिल रेहबर क़ातिल रेहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन।
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन।
उमरें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक अक़्ल का बचपन।
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कारे शीशा ओ आहन।
ख़ैर मिज़ाजे हुस्न की यारब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन।
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन।
आ, के न जाने तुझ बिन कल से
रूह है लाशा, जिस्म है मदफ़न।
काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन।

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

मेरी बओ सुरीला

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यह गीत कहीं गहरे से उठता है हालाँकि जोशीला और समुदाय में गाया जाने वाला गीत है मगर किशन सिंह पवार की आवाज़ बहुत दूर ले जाती है। कई बार लगता है आप ख़ुद ही वहां कौतिक में लोगों के साथ नाच रहे हैं।पिताजी को जब ये गीत सुनाया तो बेहद खुश हुए। वे लंबे अरसे से इसे सुनना चाह रहे थे और तकरीबन बीस सालों से ये गीत हमारे घर से गायब था। धन्य हो इन्टरनेट-युग!
गाने की रिकार्डिंग थोड़ी ख़राब है मगर निश्चित ही सुने जाने लायक है।






PS: अभी पोस्ट करने के बाद दोबारा गीत को सुना तो लगा पहले वाला मेरा बयान शायद ग़लत है। गीत और किशन सिंह पंवार की आवाज़ जो दूरी मुझे तय करवाती है वह शायद मेरा व्हिम है और मेरी नितांत निजी कल्पना की वजह से ऐसा होता है। मगर यह तय है कि गाना सुनकर नाचने का जी करता है।

शनिवार, 10 जनवरी 2009

ओरियंटल गीत का जादू

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जैसे-जैसे पश्चिम से लोग आकर भारत में बसते गए, वैसे-वैसे यहाँ की संस्कृति में बहुत कुछ जुड़ता गया। संगीत को ही लें तो आज जो शास्त्रीय संगीत का या लोक संगीत का रूप है उसमें गंगा-जमुनी संस्कृति का अद्भुत सामंजस्य है। दूसरी ओर नौटंकियों और पारसी थियेटरों से निकलकर आई फिल्मों में संगीत हमेशा महत्वपूर्ण रहा और आज भी उसके बिना फिल्में दिखाई नहीं पड़तीं।
हर फ़िल्म के विषय और देशकाल को देखते हुए उसके लिए संगीत बुनना चुनौतीपूर्ण काम रहा होगा और हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कहा जाए कि इसके लिए संगीतकारों ने दुनियाभर से खुराक प्राप्त की। अक्सर संगीतकारों पर "इधर की मिट्टी, उधर का रोड़ा" जोड़ने का आरोप लगता है। फिल्मी संगीत कई बार सीधा-सीधा किसी पश्चिमी या किसी भी बाहरी गीत या संगीत से प्रभावित होता है या उसकी नक़ल होता है। मगर जो अन्तर मुझे आज और बीते कल की नक़ल में आता है, वह आज उस नक़ल या "प्रभाव" के हिंदुस्तानीकरण का अभाव है।
अरबी-फ़ारसी संगीत का भी हमारी फिल्मों पर खासा प्रभाव पड़ा है और यह सिर्फ़ वहां प्रचलित वाद्ययंत्रों के प्रयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि कई बार कोई गीत वहां के संगीत की संतान लगता है। प्रभाव की बात करें तो यह पुराना ओरियंटल गीत उम कुल्तहुम की आवाज़ में सुनिए और बताइये कि इसका खूबसूरती से भारतीयकरण कहाँ हुआ...











यह खूबसूरत गीत गाने वाली उम कुल्तहुम ३१ दिसम्बर १९०४ को मिस्र में पैदा हुईं थीं। उन्हें द स्टार ऑफ़ द ईस्ट कहा जाता था। १९७४ में उनकी मृत्यु के बाद आज ३०-३५ सालों बाद भी उन्हें अरब जगत की सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध गायिका मना जाता है।

सोमवार, 5 जनवरी 2009

झुक-झुक देखें नयनवा

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शास्त्रीय संगीत की समझ अनिवार्य है ऐसा हमें नहीं लगता। समझ हो तो माशा-अल्लाह, न हो तो भी ठीक। ऐसे कई लोगों से साबका पड़ा है जिन्हें समझ नहीं मगर वे उसका आनंद लेना जानते हैं।

खैर हम यहाँ कोई शुद्ध शास्त्रीय संगीत नहीं लगा रहे, इसलिए यह चर्चा बेमानी है। बेग़म अख़्तर का राग पूर्वी में गाया दादरा है। सुनिए और मस्त हो जाइये।




 

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