सोमवार, 9 मार्च 2009

ख़ुद तेरी लागली

कुछ ख़ास नहीं...

डेढ़ महीने की इस ब्लॉग से छुट्टी के बाद आज अचानक ही मैदान में उतर आया। दरअसल काम की व्यस्तता और कमर का दर्द एक ही रफ़्तार से बढ़ते रहे और ठीक से कुछ भी नहीं हो पा रहा था। अब भी कोई अन्तर नहीं पड़ा है मगर लगा दोस्त कहीं नाराज़ न हो जाएँ। मैं तो पूरे महीने सिर्फ़ और सिर्फ़ शास्त्रीय संगीत ही सुनता रहा।

विरह गीतों की परम्परा में गोपाल बाबू के दो बहुत ही प्रसिद्ध और बहुत ही कर्णप्रिय कुमाउनी गीत यहाँ पहले लगाए थे। जो दर्जा गोपाल बाबू को कुमाऊं में प्राप्त है वैसा ही नरेन्द्र सिंह नेगी जी को गढ़वाल में है। केसेट से सीडी और सीडी से ऑनलाइन संगीत के कई दौर पार करके नरेंद्र सिंह जी आज भी नाच-गा रहे हैं। यह जो गीत नीचे है वह उनके करीयर का शुरुआती है।

गीत में बाँसुरी की पहली ही तान गीत के मूड को सेट कर देती है। इस गीत को सुनकर मुझे बचपन में गाँव में पिकनिक जैसे बिताये दिनों की गहराती और अंततः घुप्प होती शामें याद आ जाती हैं। उन शामों में टूटता मन और रोमांचित करता डर घुला होता था। गीत सुनते हुए अब भी सब कुछ वैसा ही लगता है।



3 टिप्पणियां:

सुशील छौक्कर ने कहा…

महेज जी बेहतरीन गीत। आपकी पिकासो वाली बात याद हो गई और उसका इस्तेमाल करता हूँ।

siddheshwar singh ने कहा…

भल लाग्यो..

Alpana Verma ने कहा…

Shukriya in sundar geeton ko sunwane hetu..abhi 1-2 din pahle kisi aur site par bhi gadwali geet suney.[shayd 'geet gata chal 'par?].
in geeton ki dhun hi baandhey rakhti hai..chahey bhasha samjh aaye ya nahin...

'ishwar kare aap ki kamar ka daard jaldi theek ho.
holi ki shubhkamnayen.

 

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