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सोमवार, 13 अप्रैल 2009

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

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बरसों पहले इकबाल बानो की एक कैसेट एक दुकान पर दिखी। तबतक उनका नाम नहीं सुना था और खरीदने की एकमात्र वजह यह थी कि कैसेट मेरे बजट में थी और थोड़ी सी जिज्ञासा मेहदी हसन और फरीदा खानम के अलावा किसी और पाकिस्तानी गायक की ग़ज़ल सुनने की।

जैसाकि हमेशा होता है पहली बार में प्रभावित नहीं हुआ और तबतक अप्रभावित रहा जबतक फैज़ की नज़्म "हम देखेंगे" पढ़ी नहीं और पढ़कर उसे इकबाल बानो की आवाज़ में सुना नहीं। इस तरह की नज्में भारत में क्यों नहीं गई जाती, यह एक सवाल है। इसके उत्तर में न पढ़ा जाए और यही नज़्म सुनी जाए अब।





हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे-गराँ
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ऐ-ख़ुदा के का'बे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले-सफ़ा, मरदूद-ऐ-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराए जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी हैं, नाज़िर भी
उट्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा खल्के-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
 

प्रत्येक वाणी में महाकाव्य... © 2010

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