सोमवार, 27 अप्रैल 2009

बानू का जाना

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ब्लॉग पर मेरी उपस्थिति ना के बराबर चल रही है और इसी के चलते मुझे बानू के इंतेकाल के बारे में कबाड़खाना पर नज़र दौड़ते हुए काफ़ी देर से पता चला। अजीब ही सी बात है कि पिछली ही पोस्ट से इकबाल बानो का आगाज़ प्रत्येक वाणी पर हुआ था।
जब मैंने उन्हें सुनना शुरू किया तबतक ख़राब तबीयत के चलते वे गाना बंद कर चुकी थीं और अंत तक उनका गाना लगभग बंद ही रहा मगर भला हो तकनीक का, कि उनके बाद भी हम और हमारे बच्चे ऐसे कलाकारों और उनकी रचनाओं से महरूम नहीं रहेंगे। इकबाल बानो को श्रद्धांजलि ग़ालिब की इस ग़ज़ल के साथ।





दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है क्या कहिये
ये ज़िद, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिये
रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है क्या कहिये
ज़िह-ए-करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है क्या कहिये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये
उन्हें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है क्या कहिये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है क्या कहिये
कहा है किसने कि "ग़ालिब" बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

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बरसों पहले इकबाल बानो की एक कैसेट एक दुकान पर दिखी। तबतक उनका नाम नहीं सुना था और खरीदने की एकमात्र वजह यह थी कि कैसेट मेरे बजट में थी और थोड़ी सी जिज्ञासा मेहदी हसन और फरीदा खानम के अलावा किसी और पाकिस्तानी गायक की ग़ज़ल सुनने की।

जैसाकि हमेशा होता है पहली बार में प्रभावित नहीं हुआ और तबतक अप्रभावित रहा जबतक फैज़ की नज़्म "हम देखेंगे" पढ़ी नहीं और पढ़कर उसे इकबाल बानो की आवाज़ में सुना नहीं। इस तरह की नज्में भारत में क्यों नहीं गई जाती, यह एक सवाल है। इसके उत्तर में न पढ़ा जाए और यही नज़्म सुनी जाए अब।





हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे-गराँ
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ऐ-ख़ुदा के का'बे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले-सफ़ा, मरदूद-ऐ-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराए जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी हैं, नाज़िर भी
उट्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा खल्के-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

आए न बालम

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अभी तक तो कोई भी शुद्ध शास्त्रीय संगीत पर आधारित पोस्ट इधर चस्पां नहीं की है। सो आज जो टटोलने लगा तो एकाएक नज़र बड़े गुलाम अली साहब पर पड़ी। ऐसा कलाकार हो तो क्या छोड़ा जाए और क्या चुना जाए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता। वे चुनाव से ऊपर की चीज़ हो जाते हैं। कोई भी बंदिश, कोई भी टुकड़ा उठा लीजिये मनभावन ही होगा। तो फ़िर हम सेमी-क्लासिकल पर ही अटक गए।



"का करूँ सजनी आए न बालम" येसुदास जी की आवाज़ में किसने नहीं सुना होगा और किसे नहीं भाया होगा? दरअसल यह एक ठुमरी है जिसे बड़े गुलाम अली साहब ने गाया है। ज़ाहिर है फ़िल्म में इसमें थोड़ा बदलाव किया गया है। खान साहब का नाम आता है तो इस ठुमरी का नाम भी ज़रूर आता है। यहाँ ब्लॉग पर खान साहब का आगाज़ करने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है? ठुमरी के तुंरत बाद ही एक छोटी सी बंदिश राग मालकौस में है।





 

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