गुरुवार, 19 मार्च 2009

सुस्वरलक्ष्मी का आठवां सुर

दक्षिण में रहते हुए कर्णाटक संगीत मुझे बार-बार आकर्षित करता है, खासकर मंदिरों में बजता हुआ संगीत। अगर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत श्रृंगार प्रधान है तो कर्नाटक संगीत भक्ति प्रधान। ऐसा नहीं कि गोदावरी पार करने से पहले मेरा कभी कर्णाटक संगीत से साबका नहीं पड़ा हो। वास्तव में तो अगर हलंत पर अपनी पिछली पोस्ट की तर्ज़ पर बात करूँ तो कर्णाटक संगीत से कुछ बहुत विशेष और बेहद निजी यादें जुड़ी हैं; खासकर एम एस सुब्बुलक्ष्मी के गायन से जो चाहे-अनचाहे सुब्बुलक्ष्मी को सुनते हुए साथ साथ रहती हैं। सुब्बुलक्ष्मी का गायन मेरे लिए कई चीज़ों का पर्याय हो चुका है। कुछ दिनों पहले बार बार सुब्बुलक्ष्मी को सुन रहा था और लगता है वह सिलसिला अब दोबारा शुरू होने वाला है।




कर्णाटक भक्ति संगीत श्रीमती जी को भी बेहद पसंद है और इसी के चलते घर पर तरह तरह का दक्षिण भारतीय भक्ति संगीत इक्कठा होता रहता है। इसलिए सोचा कि आज ब्लॉग पर सुब्बुलक्ष्मी के गायन को स्थान मिलना चाहिए।




6 टिप्पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत दिन बाद कर्णाटक संगीत सुना। सुनवाने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

महेन जी मेरी अम्मा और पापा जी की शादी के मँगल गीत सुश्री शुब्भालक्ष्मी जी ने ही गाये थे ..आज भी उनका स्वर दीव्य लगता है

- लावण्या

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी ने कहा…

she is a legend. Thanks.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

भजगोविन्दम या मोहमुद्गर ने मेरे व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव डाला है। आदिशंकर के इस स्तोत्र को स्वामी चिन्मयानन्द ने हमें पढ़ाया था।
आज आपने सुब्बुलक्ष्मी की आवाज में सुनवा कर धन्य कर दिया।
धन्यवाद।

संजय पटेल ने कहा…

महेन भाई,
राम राम.
सुब्बुलक्ष्मी को सुन लो तो मंदिर जाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती.

अजित वडनेरकर ने कहा…

जै जै...
सुब्बुलक्ष्मी की आवाज कई दिनों बाद सुनी...
धन्य हूं...

 

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