शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

ख़ैर मिज़ाजे हुस्न की यारब

बेहद आसान से शब्दों में कैसे मानी भरे जाते हैं मलिका-ऐ-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर से बेहतर कौन जानता होगा? जो कई बार सायास लगता है वह कितनी सहजता से बेग़म अख़्तर निभा लेती हैं इसका एक नमूना देखिये जिगर मुरादाबादी की इस अत्यन्त खूबसूरत ग़ज़ल में...







नीचे पूरी ग़ज़ल ही दे रहा हूँ। बेग़म अख़्तर ने ग़ज़ल के पाँच शेर गाए हैं।
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन।
कामिल रेहबर क़ातिल रेहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन।
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन।
उमरें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक अक़्ल का बचपन।
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कारे शीशा ओ आहन।
ख़ैर मिज़ाजे हुस्न की यारब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन।
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन।
आ, के न जाने तुझ बिन कल से
रूह है लाशा, जिस्म है मदफ़न।
काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन।

4 टिप्पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत मधुर ग़ज़ल सुनवाने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती

siddheshwar singh ने कहा…

आज की सुबह की शुरुआत इस नायाब ग़ज़ल से ..
आज का दिन अच्छा राखियो मौला !!

महेन ने कहा…

धन्यवाद घुघूती जी और सिद्धेश्वर भाई... कल का दिन भी अच्छा राखियो मौला... कल भी छुट्टी है ;-)

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

हिज्र की रात और इतनी रोशन।

आ, के न जाने तुझ बिन कल से

रूह है लाशा, जिस्म है मदफ़न।

काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर

कौन छुड़ाए अपना दामन।

Wah...! is sunder gazal k liye sukriya ji....!

 

प्रत्येक वाणी में महाकाव्य... © 2010

Blogger Templates by Splashy Templates