शनिवार, 26 जुलाई 2008

क्या आपने फ़रीदा ख़ानम की ग़ज़ल सुनी हैं?

ग़ज़ल-गायकी में चंद ही लोग ऐसे हैं जिन्होनें न सिर्फ़ अपने लिये जगह बनाई है बल्कि ग़ज़ल कहने की शैली को एक नया जामा भी पहनाया है। अगर मेहदी हसन इनमें सबसे आगे हैं तो फ़रीदा आपा उनसे ज़्यादा पीछे नहीं है। ब्लोगजगत में पिछले कुछ समय से लगातार काफ़ी अच्छी ग़ज़लें सुनने को मिल रही हैं मगर मुझे हैरानी होती रही है कि क्यों फ़रीदा ख़ानम या बेग़म अख़्तर की ग़ज़लें नहीं सुनाई पड़तीं। सोचा क्यों न यह काम मैं ही कर डालूँ। फ़रीदा आपा की मेरी निजी पसंदीदा ग़ज़ल आज मैं पोस्ट कर रहा हूँ। क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल को कलात्मकता के साथ-साथ जिस RAW अंदाज़ में फ़रीदा आपा ने गाया है, वैसा संयोजन मुझे काफ़ी कम ग़ज़लों मे देखने को मिला है। ग़ज़ल का मक़्ता गाया नहीं गया है तो भी मुझे लगा उसे छोड़ देना क़तील जी के साथ अन्याय होगा:


तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहाँ जाते

निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराये हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते

"क़तील" अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
फिर तो अपने-पराये हमसे पहचाने कहाँ जाते


नीचे दो लिंक दिये गए हैं। पहला वाला लिंक अपेक्षाकृत सही तरह से काम करना चाहिये।

9 टिप्पणियां:

पारुल "पुखराज" ने कहा…

badhiya post ...fareedaa khanum aur mehndi hasan...dono hi khuubsurat avaazen hain...apna apna rang hai dono kaa..aisey me kaun kum aur kaun zyadaa....ye aank panaa naamumkin hai...jisey jo bhaye vo sunvaaye..:)..sab ka swagat hai

रंजू भाटिया ने कहा…

waah yah to mujhe bhi behad pasand hai khaaskar iski yah lines

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते


yah bahut nek kaam kiya aapne ..behad khuburat andaaz hai yah shukriya

बेनामी ने कहा…

Faridaji ki gajal sunane ke liye aabhar.

सुशील छौक्कर ने कहा…

अजी महेन जी अपनी पसंद का सुनाऐ या पढवाऐ। और हम ना सुने और ना पढे भला ऐसा हो सकता हैं। महेन,पढा काफी समझ में आया। जो दिल को छू गया।

निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराये हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते
"क़तील" अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
फिर तो अपने-पराये हमसे पहचाने कहाँ जाते

पर सुन नही पाऐ रुक रुक चल रहा हैं। खैर रिकार्ड कर लिया है बाद में सुनेगे। एक बात कहनी थी सोच रहा हूँ कहूँ या ना कहूँ पर शायद कह देनी चाहिए। बात ये है कि एक आध कठिन शब्दों का नीचे अर्थ देना चाहिए। तब चार चाँद लग जाऐगे पोस्ट में। जैसा अक्सर गजल की किताबों में होता है।

डॉ .अनुराग ने कहा…

जी हाँ खूब सुना है ओर आज भी कभी कभी सुनते है ओर लुत्फ़ उठाते है......

Manish Kumar ने कहा…

shukriya is ghazal ko sunvane ke liye.

Waise aap blogger ki jagah Lifelogger ya internet archive par ghazal upload karein to behtar rahega. Blogger par ghazal ruk ruk ke sunayi dr rahi hai philhaal.

Akhil ने कहा…

khud kahan gayab ho?

Ashok Pande ने कहा…

उत्तम पोस्ट भाई महेन!

Abhishek Ojha ने कहा…

पहली बार ही सुना... पर और जानकारी और गजलें जुगाड़नी पड़ेगी.

 

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