दक्षिण में रहते हुए कर्णाटक संगीत मुझे बार-बार आकर्षित करता है, खासकर मंदिरों में बजता हुआ संगीत। अगर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत श्रृंगार प्रधान है तो कर्नाटक संगीत भक्ति प्रधान। ऐसा नहीं कि गोदावरी पार करने से पहले मेरा कभी कर्णाटक संगीत से साबका नहीं पड़ा हो। वास्तव में तो अगर हलंत पर अपनी पिछली पोस्ट की तर्ज़ पर बात करूँ तो कर्णाटक संगीत से कुछ बहुत विशेष और बेहद निजी यादें जुड़ी हैं; खासकर एम एस सुब्बुलक्ष्मी के गायन से जो चाहे-अनचाहे सुब्बुलक्ष्मी को सुनते हुए साथ साथ रहती हैं। सुब्बुलक्ष्मी का गायन मेरे लिए कई चीज़ों का पर्याय हो चुका है। कुछ दिनों पहले बार बार सुब्बुलक्ष्मी को सुन रहा था और लगता है वह सिलसिला अब दोबारा शुरू होने वाला है।
कर्णाटक भक्ति संगीत श्रीमती जी को भी बेहद पसंद है और इसी के चलते घर पर तरह तरह का दक्षिण भारतीय भक्ति संगीत इक्कठा होता रहता है। इसलिए सोचा कि आज ब्लॉग पर सुब्बुलक्ष्मी के गायन को स्थान मिलना चाहिए।
कर्णाटक भक्ति संगीत श्रीमती जी को भी बेहद पसंद है और इसी के चलते घर पर तरह तरह का दक्षिण भारतीय भक्ति संगीत इक्कठा होता रहता है। इसलिए सोचा कि आज ब्लॉग पर सुब्बुलक्ष्मी के गायन को स्थान मिलना चाहिए।