प्रशांत की टिप्पणी से पूरी तरह से सहमति रखता हुँ। परिवेश अत्यंत ज़रूरी है और हमारे समाज में कुंठा इतनी ज़्यादा होने के पीछे परिवेश की भिन्नता एक अहम कारण है। मैंने पहले लेख में प्रत्यक्ष रूप से इस मुद्दे को नहीं छुआ है। यहाँ पर इस बारे में विस्तार से चर्चा करूंगा।
आज से लगभग 22 साल पहले तक दिल्ली के सरकारी स्कूलों में संयुक्त शिक्षा प्रणाली होती थी। लड़के-लड़कियाँ एक ही कक्षा में बैठते थे। बाद में यह प्रणाली धीरे-धीरे समाप्त कर दी गयी। जब यह प्रणाली प्रचलन में थी, तब भी लड़के कक्षा के एक ओर बैठते थे और लड़कियाँ दूसरी ओर। वे नाममात्र को एक साथ पढ़ते थे; वास्तव में उनकी मंडलियाँ अलग-अलग होती थीं और वे शायद ही कभी एक दूसरे से बात करते थे। यह वर्गीकरण क्यों? कक्षा में जो विभाजन की रेखा खिंची जाती थी उसकी पैठ वयस्क हो रहे मस्तिष्क में बहुत गहरी खिंच जाती थी। यह विभाजन मात्र अध्यापकों का या शिक्षा-प्रणाली को चलाने वालों का बनाया हुआ नहीं था, वरन इसकी जड़ें समाज में हर जगह फ़ैली हुईं हैं। यह परिद्रश्य आज 22 साल बाद भी बदला नहीं है, हालांकि बड़े शहरों में यह विभाजन कुछ कम हुआ है (कुछ ही कम हुआ है), किंतु पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।
मैंने स्कूल में जो एक बार भोगा है उसका कारण मुझे कुंठा से उपजी विकृत मानसिकता ही लगती है। यह १९९० की बात है जब मैं दसवीं कक्षा में था। मेरे एक सहपाठी ने कक्षा पर एक कविता लिखी और उसमें लगभग सभी सहपाठियों की विशेषताओं का वर्णन किया। हम कई दिनों तक उस कविता से खेलते रहे और उत्साहित होते रहे। एक दिन वह कविता गलती से डेस्क पर छूट गयी और अगले दिन सुबह जब वहां लड़कियों की कक्षा चल रही थी तो वो कविता किसी लड़की के हाथ लग गयी। कविता काफी रोचक थी इसलिए लड़कियां प्रभावित हो गयीं। उन्होने बोर्ड पर एक सन्देश लिख छोडा कि कविता रोचक है, कृपया कवि अपना नाम बताये। सहपाठी, जिसने यह कविता लिखी थी, बहुत उत्साहित हो गया और उसने लड़कियों को थोड़ा और प्रभावित करने की सोची। सीधा सीधा अपना नाम देने के बजाये उसने कोड-वर्ड्स का इस्तेमाल किया और एक पर्चे में अपना और मेरा नाम लिख छोड़ा। उसी शाम एक अन्य सहपाठी ने किसी लड़की के नाम "लक्ष्मी मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ" ब्लैक-बोर्ड पर लिख दिया और जानबूझकर अपना नाम नहीं लिखा। बदकिस्मती से कोई अध्यापक उस शाम सारी कक्षाओं निरीक्षण कर रहे थे और वे हमारी कक्षा में आये तो उन्हें पहले ब्लैक-बोर्ड पर लिखा हुआ "लक्ष्मी मैं तुमसे प्यार करता हूँ" दिखा और उसके बाद दिखा डेस्क पर पड़ा हुआ एक पर्चा। उन्होने वह पर्चा जाकर मुख्याध्यापक महोदय के हवाले कर दिया। अगले दिन जब हम पुस्तकालय में बैठे थे तो हम दोनों के नाम का बुलावा आया। उसके बाद शुरू हुआ ताबड़तोड़ थप्पड़ो का सिलसिला। हमे कुछ कहने की कोई आज्ञा नहीं थी। चुपचाप मार खाने के लिए बुलाया गया था। यहाँ एक बात गौर करने लायक हैं। यदि उन्होने यह मान भी लिया कि "लक्ष्मी मैं तुम्हे प्यार करता हूँ" हमने ही लिखा था तो भी इसमें पीटने की क्या वजह थी? संभवतः वे यही सन्देश देना चाहते थे कि आपको प्रेम करने की आज्ञा नहीं है, कि आपको "मोरल" सिखाना भी हमारा ही काम है किन्तु मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मोरल की शिक्षा कैसे लूँ जो बात-बात पर हाथ छोड़ देता हो और खुद हरामखाने जैसी गालियाँ देता हो? और मज़ेदार बात यह कि उन्होंने यह जानने की ज़हमत भी नहीं उठाई कि इस बारे में हमारे माता-पिता को सूचित किया जाए। वे यह मानकर चल रहे थे कि यह जो तथाकथित समाजिक नियम है उसके बाहर कोई नहीं है और हमारे माता-पिता की राय यदि इस बारे में कुछ और हुई भी तो भी समाजिक नियम सर्वोपरि हैं और किसी की निजी राय उनके अपने बच्चों की परवरिश के सन्दर्भ में कोई मायने नहीं रखती। बहरहाल वे यह कहना चाहते थे कि सामाजिक नियम के अनुरूप आपको विपरीत सेक्स से तबतक दूर रहना है जबतक कि आपका विवाह न हो जाए। उससे पहले ऐसी कोई चेष्टा भी अपराध है। हम बच्चों के मन में कोई कुंठा नहीं थीं। यदि कुछ रहा भी होगा तो वह होगी सरल जिज्ञासा किंतु उन महोदय की कुंठायें हमारे चेहरे पर थप्पड़ बनकर बरस रही थीं।
जब आप एक लड़के और लड़की को ऐसा परिवेश देंगे जिसमें वे न सिर्फ़ एक दूसरे के शारीरिक भूगोल से अपरिचित रह जायें, बल्कि साथ ही उन्हे विपरीत सेक्स की स्थिति को भावनात्मक और सामाजिक तौर पर भी समझने का अवसर न मिले तो परिणाम घातक ही होंगे न? इन्ही लड़के-लड़कियों की एक दिन अचानक शादी कर दी जायेगी और कहा जायेगा कि अब साथ-साथ रहो; मगर कैसे? जो दो लोग एक दूसरे को न शारीरिक तौर पर जानते हैं, न मानसिक और भावनात्मक तौर पर वे एक साथ कैसे पूरा जीवन बिता देंगे? और क्या ऐसे में दुर्घटनाओं या गलतियों की सम्भावनायें ज़्यादा नहीं हैं?
विपरीत सेक्स से ये दूरी कई लोगों में विकृति पैदा कर देती है। हालांकि इस तरह की विकृतियों के पीछे विपरीत सेक्स से दूरी ही अकेला कारण नहीं है; वजह भिन्न-भिन्न हो सकती हैं क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार और बलात्कार विकसित पश्चिमी देशों में भी होते हैं और ऐसे घरों में भी होते हैं जहाँ महिलायें आत्म-निर्भर हैं। पिछले दिनों एक व्यक्ति ने दक्षिण लंदन में एक १५ वर्षीय किशोरी अर्सेमा डाविट का वध कर दिया। ऐसा करने के पीछे कोई कारण नहीं था। सच क्या है यह तो पड़ताल के बाद ही पता चलेगा, किन्तु प्राइमा-फेसी सबूतों के आधार पर यही लगता है कि वह व्यक्ति किसी न किसी मानसिक रोग से पीड़ित था। इस रोग के पीछे किसी भी तरह कि कुंठा या हीन-भावना हो सकती है।
चलिए अब लौट चलते हैं अपने देश भारत की ओर क्योंकि यहाँ की समस्याएं भिन्न और बुनियादी हैं। स्कूल से बाहर निकलते ही लड़कों में एक उत्साह भर जाता है और लड़कियों में एक भयमिश्रित रोमांच। कारण तो सर्वज्ञात है। विपरीत सेक्स से मिलने की अधिकारिक छूट मिल जाती है हालांकि यह छूट कॉलेज तक ही सीमित रहती है, घर तक नही जाती, लड़कियों के लिए तो कतई नहीं। (यह बात मैं पूरे भारत के संदर्भ में कह रहा हूँ मात्र दिल्ली या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के लिए नहीं जहाँ अब स्थिति पहले से कुछ हद तक बदल चुकी है)। मेरे कई मित्र कॉलेज में लड़कियों के सामने पड़ने मात्र से घबरा जाते थे और दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लड़के थे जो लड़कियों को उपभोग की वस्तु समझते थे। आत्मविश्वास सिर्फ दूसरे तरह के लोगों में भरा हुआ था और पहले तरह के लड़के अपनी तमाम शराफत के बावजूद काफी ठस थे। मेरा अपना एक भला मित्र आजतक स्वीकार करता है कि उसने कॉलेज में सिर्फ ३-४ बार लड़कियों से बात की होगी। एक मजेदार बार याद आती है। कॉलेज में हमारी ६ लोगों की एक मंडली होती थी जिसमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं। एक लड़की जाटनी थी और बहुत सम्पन्न परिवार से होने के बावजूद भी उसका व्यवहार जाटों की तरह आक्रामक था (जाट भाई अन्यथा न लें। मेरे आज भी बहुत से जाट मित्र हैं।)। उसकी ओर किसी की भी आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। तो हुआ यूँ मंडली के बाकी के तीनों सदस्य एक-एक करके दूसरी लड़की के इश्क में पड़ते रहे। यह सिलसिला उसके एक साल बाद कॉलेज छोड़कर जाने तक चलता रहा, यह जानते हुए भी कि उस लड़की की पारिवारिक स्थिति ऐसी है कि यदि वह चाहे तो भी प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ेगी। इस उम्र में आकर्षण होना स्वाभाविक भी है और ठीक भी। जैसाकि तालास्तोय ने कहा था कि यदि कोई लड़की अपना १५वां मना रही है तो वह ज़रूर चाहेगी कि कोई उसे छुए, प्यार करे। यदि ऐसा नहीं है तो उस लड़की में अवश्य ही कुछ ग़लत है। यह बात इसी तरह लड़कों पर भी लागू होती है। किन्तु कॉलेज में आते ही लोग जैसे एक होड़ में लग जाते हैं और जल्द से जल्द हर कोई किसी न किसी तरह के संबंध में पड़ना चाहता है। यदि इसे कुंठा न भी कहा जाये तो भी एक प्रकार की हीनता तो है ही इसमें। यह हीनता जन्म क्यूँ लेती है? क्योंकि १८ सालों तक उनको ऐसा परिवेश दिया गया जिसमें उन्हें एक दूसरे से दूर रहना सिखाया गया और १८ साल का होते-होते उन्हें समझ आने लगता है कि उन्हें सही नहीं सिखाया गया है। जुरासिक पार्क में एक चरित्र कहीं कहता है कि जीवन तो अपना रास्ता खोज ही लेता है। क्या यह बात स्त्री-पुरुष के अनादिकाल से चले आ रहे संबंध पर भी सटीक नहीं बैठती? जो प्रकृति ने बनाकर दिया है आप कितने हजारों सालों से उससे लड़ रहे हो और वह फिर भी लौट-लौट आती है। आप उसे कैसे मिटा दोगे? मुझे अचरज होता है कि सेक्स को संदिग्ध मानने वाला भारत हर साल एक आस्ट्रेलिया की जनसंख्या पैदा कर लेता है। क्या यहाँ भी कुंठा ही तो नहीं है? जिसे १८ वर्षों तक रोका गया वह मौका मिलते ही फूट-फूटकर बहने लगता है।
कई बार सोचता हूँ कि इस संसार में सभी जीव-जंतुओं का मिलन का समय तय होता है मगर एक मनुष्य ही ऐसा जीव है जो बारहों मास सेक्स से ओत-प्रोत रहता है। ऐसा क्यूँ है? यदि आप कालाहारी के जंगलों में जाएं तो पायेंगे कि वहाँ की प्रजातियाँ, जिन्हें "बुशमैन" कहा जाता है, आज भी पाषाण-युग में जी रही हैं। वे लोग मात्र गुप्तांगों को ढकते हैं और जो दिख रहा होता है उसे ललचाई नज़रों से नहीं देखते। वे सेक्स और विपरीत सेक्स को इतनी सहजता से कैसे लेते हैं? संभवतः उन्हें यह नहीं सिखाया जाता कि विपरीत सेक्स से दूर रहना चाहिए। वे संभवतः पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ते हैं। वे शायद एक दूसरे के पूरक होते हैं।किन्तु अपना यह देश जिसने दुनिया को कामसूत्र और कोकशास्त्र दिये, खुद ही अपना रास्ता भटक गया। ऐसा खुला हुआ हमारे समाज को अचानक क्या हुआ जो इसमें ऐसी हीनता भर गयी और नारी या तो प्रताड़ना की या उपभोग की वस्तु बन गयी? उससे संबंधित किसी भी परिवर्तन के नियामक पुरुष बन बैठे जो आजतक यह भी निर्धारित करना चाहते हैं कि वह क्या पहने और क्या न पहने और कब पहने और कब उतारे।
आज से लगभग 22 साल पहले तक दिल्ली के सरकारी स्कूलों में संयुक्त शिक्षा प्रणाली होती थी। लड़के-लड़कियाँ एक ही कक्षा में बैठते थे। बाद में यह प्रणाली धीरे-धीरे समाप्त कर दी गयी। जब यह प्रणाली प्रचलन में थी, तब भी लड़के कक्षा के एक ओर बैठते थे और लड़कियाँ दूसरी ओर। वे नाममात्र को एक साथ पढ़ते थे; वास्तव में उनकी मंडलियाँ अलग-अलग होती थीं और वे शायद ही कभी एक दूसरे से बात करते थे। यह वर्गीकरण क्यों? कक्षा में जो विभाजन की रेखा खिंची जाती थी उसकी पैठ वयस्क हो रहे मस्तिष्क में बहुत गहरी खिंच जाती थी। यह विभाजन मात्र अध्यापकों का या शिक्षा-प्रणाली को चलाने वालों का बनाया हुआ नहीं था, वरन इसकी जड़ें समाज में हर जगह फ़ैली हुईं हैं। यह परिद्रश्य आज 22 साल बाद भी बदला नहीं है, हालांकि बड़े शहरों में यह विभाजन कुछ कम हुआ है (कुछ ही कम हुआ है), किंतु पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।
मैंने स्कूल में जो एक बार भोगा है उसका कारण मुझे कुंठा से उपजी विकृत मानसिकता ही लगती है। यह १९९० की बात है जब मैं दसवीं कक्षा में था। मेरे एक सहपाठी ने कक्षा पर एक कविता लिखी और उसमें लगभग सभी सहपाठियों की विशेषताओं का वर्णन किया। हम कई दिनों तक उस कविता से खेलते रहे और उत्साहित होते रहे। एक दिन वह कविता गलती से डेस्क पर छूट गयी और अगले दिन सुबह जब वहां लड़कियों की कक्षा चल रही थी तो वो कविता किसी लड़की के हाथ लग गयी। कविता काफी रोचक थी इसलिए लड़कियां प्रभावित हो गयीं। उन्होने बोर्ड पर एक सन्देश लिख छोडा कि कविता रोचक है, कृपया कवि अपना नाम बताये। सहपाठी, जिसने यह कविता लिखी थी, बहुत उत्साहित हो गया और उसने लड़कियों को थोड़ा और प्रभावित करने की सोची। सीधा सीधा अपना नाम देने के बजाये उसने कोड-वर्ड्स का इस्तेमाल किया और एक पर्चे में अपना और मेरा नाम लिख छोड़ा। उसी शाम एक अन्य सहपाठी ने किसी लड़की के नाम "लक्ष्मी मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ" ब्लैक-बोर्ड पर लिख दिया और जानबूझकर अपना नाम नहीं लिखा। बदकिस्मती से कोई अध्यापक उस शाम सारी कक्षाओं निरीक्षण कर रहे थे और वे हमारी कक्षा में आये तो उन्हें पहले ब्लैक-बोर्ड पर लिखा हुआ "लक्ष्मी मैं तुमसे प्यार करता हूँ" दिखा और उसके बाद दिखा डेस्क पर पड़ा हुआ एक पर्चा। उन्होने वह पर्चा जाकर मुख्याध्यापक महोदय के हवाले कर दिया। अगले दिन जब हम पुस्तकालय में बैठे थे तो हम दोनों के नाम का बुलावा आया। उसके बाद शुरू हुआ ताबड़तोड़ थप्पड़ो का सिलसिला। हमे कुछ कहने की कोई आज्ञा नहीं थी। चुपचाप मार खाने के लिए बुलाया गया था। यहाँ एक बात गौर करने लायक हैं। यदि उन्होने यह मान भी लिया कि "लक्ष्मी मैं तुम्हे प्यार करता हूँ" हमने ही लिखा था तो भी इसमें पीटने की क्या वजह थी? संभवतः वे यही सन्देश देना चाहते थे कि आपको प्रेम करने की आज्ञा नहीं है, कि आपको "मोरल" सिखाना भी हमारा ही काम है किन्तु मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मोरल की शिक्षा कैसे लूँ जो बात-बात पर हाथ छोड़ देता हो और खुद हरामखाने जैसी गालियाँ देता हो? और मज़ेदार बात यह कि उन्होंने यह जानने की ज़हमत भी नहीं उठाई कि इस बारे में हमारे माता-पिता को सूचित किया जाए। वे यह मानकर चल रहे थे कि यह जो तथाकथित समाजिक नियम है उसके बाहर कोई नहीं है और हमारे माता-पिता की राय यदि इस बारे में कुछ और हुई भी तो भी समाजिक नियम सर्वोपरि हैं और किसी की निजी राय उनके अपने बच्चों की परवरिश के सन्दर्भ में कोई मायने नहीं रखती। बहरहाल वे यह कहना चाहते थे कि सामाजिक नियम के अनुरूप आपको विपरीत सेक्स से तबतक दूर रहना है जबतक कि आपका विवाह न हो जाए। उससे पहले ऐसी कोई चेष्टा भी अपराध है। हम बच्चों के मन में कोई कुंठा नहीं थीं। यदि कुछ रहा भी होगा तो वह होगी सरल जिज्ञासा किंतु उन महोदय की कुंठायें हमारे चेहरे पर थप्पड़ बनकर बरस रही थीं।
जब आप एक लड़के और लड़की को ऐसा परिवेश देंगे जिसमें वे न सिर्फ़ एक दूसरे के शारीरिक भूगोल से अपरिचित रह जायें, बल्कि साथ ही उन्हे विपरीत सेक्स की स्थिति को भावनात्मक और सामाजिक तौर पर भी समझने का अवसर न मिले तो परिणाम घातक ही होंगे न? इन्ही लड़के-लड़कियों की एक दिन अचानक शादी कर दी जायेगी और कहा जायेगा कि अब साथ-साथ रहो; मगर कैसे? जो दो लोग एक दूसरे को न शारीरिक तौर पर जानते हैं, न मानसिक और भावनात्मक तौर पर वे एक साथ कैसे पूरा जीवन बिता देंगे? और क्या ऐसे में दुर्घटनाओं या गलतियों की सम्भावनायें ज़्यादा नहीं हैं?
विपरीत सेक्स से ये दूरी कई लोगों में विकृति पैदा कर देती है। हालांकि इस तरह की विकृतियों के पीछे विपरीत सेक्स से दूरी ही अकेला कारण नहीं है; वजह भिन्न-भिन्न हो सकती हैं क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार और बलात्कार विकसित पश्चिमी देशों में भी होते हैं और ऐसे घरों में भी होते हैं जहाँ महिलायें आत्म-निर्भर हैं। पिछले दिनों एक व्यक्ति ने दक्षिण लंदन में एक १५ वर्षीय किशोरी अर्सेमा डाविट का वध कर दिया। ऐसा करने के पीछे कोई कारण नहीं था। सच क्या है यह तो पड़ताल के बाद ही पता चलेगा, किन्तु प्राइमा-फेसी सबूतों के आधार पर यही लगता है कि वह व्यक्ति किसी न किसी मानसिक रोग से पीड़ित था। इस रोग के पीछे किसी भी तरह कि कुंठा या हीन-भावना हो सकती है।
चलिए अब लौट चलते हैं अपने देश भारत की ओर क्योंकि यहाँ की समस्याएं भिन्न और बुनियादी हैं। स्कूल से बाहर निकलते ही लड़कों में एक उत्साह भर जाता है और लड़कियों में एक भयमिश्रित रोमांच। कारण तो सर्वज्ञात है। विपरीत सेक्स से मिलने की अधिकारिक छूट मिल जाती है हालांकि यह छूट कॉलेज तक ही सीमित रहती है, घर तक नही जाती, लड़कियों के लिए तो कतई नहीं। (यह बात मैं पूरे भारत के संदर्भ में कह रहा हूँ मात्र दिल्ली या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के लिए नहीं जहाँ अब स्थिति पहले से कुछ हद तक बदल चुकी है)। मेरे कई मित्र कॉलेज में लड़कियों के सामने पड़ने मात्र से घबरा जाते थे और दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लड़के थे जो लड़कियों को उपभोग की वस्तु समझते थे। आत्मविश्वास सिर्फ दूसरे तरह के लोगों में भरा हुआ था और पहले तरह के लड़के अपनी तमाम शराफत के बावजूद काफी ठस थे। मेरा अपना एक भला मित्र आजतक स्वीकार करता है कि उसने कॉलेज में सिर्फ ३-४ बार लड़कियों से बात की होगी। एक मजेदार बार याद आती है। कॉलेज में हमारी ६ लोगों की एक मंडली होती थी जिसमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं। एक लड़की जाटनी थी और बहुत सम्पन्न परिवार से होने के बावजूद भी उसका व्यवहार जाटों की तरह आक्रामक था (जाट भाई अन्यथा न लें। मेरे आज भी बहुत से जाट मित्र हैं।)। उसकी ओर किसी की भी आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। तो हुआ यूँ मंडली के बाकी के तीनों सदस्य एक-एक करके दूसरी लड़की के इश्क में पड़ते रहे। यह सिलसिला उसके एक साल बाद कॉलेज छोड़कर जाने तक चलता रहा, यह जानते हुए भी कि उस लड़की की पारिवारिक स्थिति ऐसी है कि यदि वह चाहे तो भी प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ेगी। इस उम्र में आकर्षण होना स्वाभाविक भी है और ठीक भी। जैसाकि तालास्तोय ने कहा था कि यदि कोई लड़की अपना १५वां मना रही है तो वह ज़रूर चाहेगी कि कोई उसे छुए, प्यार करे। यदि ऐसा नहीं है तो उस लड़की में अवश्य ही कुछ ग़लत है। यह बात इसी तरह लड़कों पर भी लागू होती है। किन्तु कॉलेज में आते ही लोग जैसे एक होड़ में लग जाते हैं और जल्द से जल्द हर कोई किसी न किसी तरह के संबंध में पड़ना चाहता है। यदि इसे कुंठा न भी कहा जाये तो भी एक प्रकार की हीनता तो है ही इसमें। यह हीनता जन्म क्यूँ लेती है? क्योंकि १८ सालों तक उनको ऐसा परिवेश दिया गया जिसमें उन्हें एक दूसरे से दूर रहना सिखाया गया और १८ साल का होते-होते उन्हें समझ आने लगता है कि उन्हें सही नहीं सिखाया गया है। जुरासिक पार्क में एक चरित्र कहीं कहता है कि जीवन तो अपना रास्ता खोज ही लेता है। क्या यह बात स्त्री-पुरुष के अनादिकाल से चले आ रहे संबंध पर भी सटीक नहीं बैठती? जो प्रकृति ने बनाकर दिया है आप कितने हजारों सालों से उससे लड़ रहे हो और वह फिर भी लौट-लौट आती है। आप उसे कैसे मिटा दोगे? मुझे अचरज होता है कि सेक्स को संदिग्ध मानने वाला भारत हर साल एक आस्ट्रेलिया की जनसंख्या पैदा कर लेता है। क्या यहाँ भी कुंठा ही तो नहीं है? जिसे १८ वर्षों तक रोका गया वह मौका मिलते ही फूट-फूटकर बहने लगता है।
कई बार सोचता हूँ कि इस संसार में सभी जीव-जंतुओं का मिलन का समय तय होता है मगर एक मनुष्य ही ऐसा जीव है जो बारहों मास सेक्स से ओत-प्रोत रहता है। ऐसा क्यूँ है? यदि आप कालाहारी के जंगलों में जाएं तो पायेंगे कि वहाँ की प्रजातियाँ, जिन्हें "बुशमैन" कहा जाता है, आज भी पाषाण-युग में जी रही हैं। वे लोग मात्र गुप्तांगों को ढकते हैं और जो दिख रहा होता है उसे ललचाई नज़रों से नहीं देखते। वे सेक्स और विपरीत सेक्स को इतनी सहजता से कैसे लेते हैं? संभवतः उन्हें यह नहीं सिखाया जाता कि विपरीत सेक्स से दूर रहना चाहिए। वे संभवतः पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ते हैं। वे शायद एक दूसरे के पूरक होते हैं।किन्तु अपना यह देश जिसने दुनिया को कामसूत्र और कोकशास्त्र दिये, खुद ही अपना रास्ता भटक गया। ऐसा खुला हुआ हमारे समाज को अचानक क्या हुआ जो इसमें ऐसी हीनता भर गयी और नारी या तो प्रताड़ना की या उपभोग की वस्तु बन गयी? उससे संबंधित किसी भी परिवर्तन के नियामक पुरुष बन बैठे जो आजतक यह भी निर्धारित करना चाहते हैं कि वह क्या पहने और क्या न पहने और कब पहने और कब उतारे।