गुरुवार, 20 मई 2010

पुराने गीतों की उम्र कितनी है?

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दर्द भरे गीतों, जिन्हे आज की पीढ़ी कुछ हिकारत और बहुत कुछ अजनबीपन से देखती है, की भारतीय फ़िल्मों में समृद्ध परंपरा रही है। गानों की एक पीढ़ी बहुत कुछ अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी की नौटंकियों से प्रभावित रही है या यह कहना ज़्यादा सही होगा कि मुम्बईया फ़िल्में एक विशेष संदर्भ में नौटंकियों का ही विकसित रूप हैं। नौटंकियों में जो प्रेम, मान-मुनौवव्ल, बिछोह-मिलन हुआ करता था प्रेमियों के इर्द-गिर्द घूमने वाली कथाओं का, उनकी अभिव्यक्ति के लिये प्राय: गीत-गज़लों का ही सहारा लिया जाता था। अपने आरंभिक दौर में फ़िल्मों का जो स्वरूप होता था उसमें और नौटकियों में कोई खास अंतर नहीं होता था। उन फ़िल्मों को आप अगर सेल्युलॉइड पर कविता न भी कह पाएं तो भी सेल्युलॉइड पर नौटंकी निस्संकोच कह सकते हैं। परदे के इस ओर बैठे दर्शक भी आपद् धर्म को नौटंकी के दर्शक की ही भांति निभाते आए हैं। नौटंकी के अभिन्न अंग की ही तरह हूट-हुंकार, वाह-वाह और तालियां सिनेमा में भी स्थापित हो गईं और आज भी जारी हैं और उसी तर्ज पर दो-एक इज़हार-ए-दर्द करने वाले गीत भी फ़िल्मों का हिस्सा बन गए। देखा जाए तो इन दर्द भरे गीतों ने गायकों-गीत-संगीतकारों को अपनी सृजनात्मकता के साथ प्रयोग करने की पूरी छूट दी जिसका खूब फ़ायदा उठाया गया। “सुहानी रात ढल चुकी”, “सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं”, “शाम-ए-ग़म की कसम” या “शिकवा तेरा मैं गाऊँ” जैसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं।

रफ़ी, मन्ना दे और लता जैसे दिग्गजों ने अपनी गायन क्षमताओं के जरिये संगीतकारों को इतना अवसर दिया कि वे फ़िल्मी संगीत से मनचाहे तरीके से खेल सके। रफ़ी साहब ने हाई और लो नोट्स पर गायकी के जरिये ऐसे प्रयोग किये जोकि आज भी विस्मित कर देते हैं और अगर नोटिस करें तो आप पायेंगे कि ऐसे प्रयोग ज़्यादातर दर्द भरे गीतों में ही हुए। “आज पुरानी राहों से”, “मोहब्बत ज़िन्दा रहती है”, “चल उड़ जा रे पंछी” या “ऐ मोहब्बत ज़िन्दाबाद”, ऐसे कितने ही दुख भरे गाने हैं जिनको उद्धृत किया जा सकता है।

आजकल की फ़िल्मों में दर्द भरे गीत नदारद हो चुके हैं। कहीं इक्का-दुक्का सुनाई भी पड़ें तो वे भी प्रभावित नहीं कर पाते। मुझे जो आखरी उल्लेखनीय गीत याद आता है, “तन्हाई”, “दिल चाहता है” फ़िल्म से, वह भी नौ-दस साल पुराना हो चला है। वर्तमान में तो एक ट्रेंड चल पड़ा है कि फ़िल्म में एक-दो डांस नम्बर होने चाहिये जोकि डिस्क से लेकर आइ-पॉड तक में बजाए जा सकें। दुख भरे गीत मातम का प्रतीक बन चुके हैं और उन्हें सुनने में एक हिचक और ऊब का भाव आम है। रेडियो की ओर ही अगर देखें तो सभी एफ़ एम चैनलों में हमेशा नाच-गाने टाइप के गीत बजते सुनाई पड़ते हैं और कई बार तो ये गाने इतने क्षणभंगुर होते हैं कि एक महीने बजने के बाद कभी किसी म्युज़िक प्लेयर का मुँह नहीं देख पाते।

अगर आप नियमित रूप से एफ़ एम सुनते हैं तो इन चैनलों के संगीत-ज्ञान के दिवालियेपन पर आंसू बहाने को हो उठेंगे। किसी भी नई फ़िल्म का गाना हिट हुआ तो हर घंटे एक बार उसका प्रसारण लाजिमी है। इधर बंगलौर में एक चैनल है जो इसी दोहराव को मुद्दा बनाकर विज्ञापन देते फिर रहा है “थर्टीन डिफ़रेंट सॉंग्स एवरी आवर”। मगर सुबह बजने वाला गाना शाम को आप फिर बजता हुआ पाएंगे। कोई गाना दोहराया न जाए इसलिये इस चैनल के जॉकी ने पुराने गीतों की ओर रुख किया है। यहां भी आप गौर करेंगे कि ये अतीत में ज़्यादा आगे नहीं जाते। अस्सी के दशक से पीछे जाना एक तरह से निषेध है। अगर जाएं भी तो किशोर या आर डी बर्मन के मस्ती भरे गीत ही चुने जाते हैं जोकि अकसर दो-चार दिनों में दोहराए जाते हैं। इससे पीछे जाएं तो रफ़ी के गाए शम्मी कपूर किस्म के लटकों-झटकों वाले गीत भी सुनाई पड़ जाते हैं यदाकदा मगर किसी भी हालत में एक दर्द भरा गीत नहीं बजाया जाता। दरअसल आजकल रेडियो सैड सांग्स नहीं बजाते, केवल डांस नंबर्स बजाते हैं। मुझे पिछले दिनो दो बार सुबह जल्दी उठकर कहीं जाना पड़ा और गाड़ी चलाते हुए मैं कभी रेडियो भी सुन लेता हूँ। बंगलौर में एकमात्र हिन्दी गीत बजाने वाला चैनल ही अकसर डीफ़ॉल्ट पर मेरे रेडियो पर सेट होता है और दोनो ही बार वही चैनल चल पड़ा। दोनो ही बार समय सुबह छ: से साढ़े छ: का रहा होगा। पहले दिन उस समय जो गीत बज रहा था वह “लैला ओ लैला” था। मैं चकरा गया। कोई भी चैनल अलसबेरे इस तरह के गीत नहीं चलाता। सुबह के समय सभी जगह आपको भक्ति-संगीत ही चलता मिलेगा। मगर दूसरे दिन जो गीत बज रहा था उसने मुझे सोचने को मजबूर किया कि शायद इस तरह के गीत बजाने वाले जॉकी 24x7 काम करने को तैयार रहते हैं मगर भक्ति-संगीत या फिर गंभीर किस्म का संगीत न तो वे खुद सुन सकते हैं और न ही उसकी उन लोगों को कोई जानकारी होती है। दूसरे मौके पर “खलनायक” फ़िल्म का गीत “चोली के पीछे” चल रहा था। इसी फ़िल्म के आसपास बेहद अच्छे संगीत के साथ एक फ़िल्म आई थी “लेकिन”। “चोली के पीछे” बजाने वाला “लेकिन” फ़िल्म का “यारा सीली सीली” भी बजा सकता था। दोनों एक ही दौर की फ़िल्मे हैं और दोनो में से कोई भी गीत आउटडेटेड नहीं हुआ है अभी तक।

आर डी बर्मन और किशोर कुमार की आज भी प्रासंगिकता बरकरार है जबकि रफ़ी, मन्ना दे और यहां तक कि अभी कुछ ही साल पहले गायकी से सन्यास लेने वाली लता भी अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं। तलत, मुकेश और हेमंत कुमार आदि तो धीरे-धीरे लोगों के मानस पटल से उतर चुके हैं। रफ़ी ने अगर रॉक एण्ड रोल नुमा गाने नहीं गाये होते तो वे भी अपनी तमाम ब्रिलियेंस के साथ अतीत में समा चुके होते। आर डी बर्मन क्यों आज ज़्यादा प्रासंगिक हैं और क्यों लोग उनके आगे किसी और संगीतकार को कुछ मानने को तैयार नहीं होते, स्वंय उनके पिता सचिन दा को मिलाकर, जोकि मेरे विचार में संगीत में आर डी से कई ज़्यादा आधुनिक थे? अगर आप गौर करें तो आर डी को उनके रेट्रो संगीत के लिये ज़्यादा पसंद किया जाता है बजाय कि उनके गंभीर किस्म के संगीत के। कितने लोग उनका “आंधी” या “इजाज़त” फ़िल्म का संगीत सुनना पसंद करते हैं या इस तरह के गानों को “आपके कमरे में कोई रहता है” जैसे गानों पर तरजीह देते हैं? गुलज़ार और आर डी के करिश्माई गाने ही कितने लोगों को याद हैं? “नाम गुम जाएगा”, “थोड़ी सी ज़मीं” या “मीठे बोल बोले” जैसे गाने मैनें अरसे से न किसी को गाते सुना है ना बजाते। शायद गुलज़ार साहब को खुद भी इस लीक के गीत लिखने का मौका काफ़ी वक्त से नहीं मिला होगा। ऑडियंस की याद्दाश्त बहुत दूर तक साथ नहीं देती। लोग आज दर्द भरे गीत सुनना-सुनाना नहीं चाहते तो क्या जाने भविष्य में डांस नम्बर्स की जगह ट्रांस नम्बर्स ले लें। एक खास तबके में तो वे दशकों से प्रचलित रहे ही हैं।

बाज़ार और रचनाशीलता की गुंजाइश, दोनो ही देश के सुदूर कोनों से फ़िल्मी संगीत के लिये प्रतिभा को आकर्षित करते आए हैं और यही वजह है कि हमें एक लंबे समय तक फ़िल्मों में संगीत की विविधता और सृजनात्मकता के दर्शन होते रहे। मगर इस समय जो देखने-सुनने में आ रहा है उसे विविधता से भरा हुआ कहने में मुझे हिचक होती है मगर “समथिंग डिफ़रेंट” उसे मैं ज़रूर कह सकता हूँ। कितनी सारी प्रतिभा आज भी दिखाई देती है जो ओरिजिनल है मगर अकसर जड़ से कटी हुई सी लगती है। दूसरी ओर टीवी पर चलते वाले तमाम सिंगिंग कॉम्पिटीशन को ही लीजिये। इसी तरह के एक प्रसिद्ध टीवी प्रोग्राम में सोनू निगम ने जज की हैसियत से यह सवाल उछाला था कि कॉम्पिटीशन में प्रतिस्पर्धी सिर्फ़ आजकल के ही गीत क्यों गाते हैं, उन्हें बहुत पीछे जाकर ज़्यादा कर्णप्रिय मगर कठिन गीत गाने चाहिये। इससे उनकी योग्यता को जज करना ज़्यादा आसान होगा। नब्बे के दशक तक फ़िल्मों के स्वर्णिम युग से गाने उठाकर रियाज़ और प्रतियोगिताएं की जाती थीं। स्वंय सोनू निगम इसी तरह की प्रतियोगिताओं की देन हैं। मगर यह सिलसिला बीते दशक में गायब हो गया। तुरत-फुरत पाई जा सकने वाली सफलता इसका कारण हो सकता है। यदि रफ़ी के गाए “चाहे कोई मुझे जंगली कहे” टीपने से बात बन सकती है तो “मन तरपत हरि दरशन को” कोई क्यों गाए? शायद इसी सुविधाजनक रवैये के चलते तलत महमूद के फ़ॉलोअर्स दिखाई नहीं पड़ते और इसी रवैये के चलते पुराने गायक ऑब्स्लीट होते जा रहे है और साथ ही दुख को स्वर देने वाले गाने भी।
 

प्रत्येक वाणी में महाकाव्य... © 2010

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