शनिवार, 31 मई 2008

छोटा सा परिचय...

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बरसों पहले दसवें दशक के शुरुआती वर्षों में जब कॉलेज में पहुंचा तो लिखने का शौक चर्राया. कोई अनोखी बात नहीं थी. इस उम्र में लोगों को या तो इश्क का शौक चर्राता है या कवितायेँ लिखने का. बहरहाल डायरी लिखनी शुरू की, मगर विश्वास नहीं था डायरी कैसे लिखी जाती है क्योंकि मैं डायरी को साहित्यिक संदर्भ में ही देखता था; निजी जीवन का लेखा-जोखा नहीं मानता था. वो तो जब मोहन राकेश की डायरी हाथ लगी तो समझ आया की उनके जैसा विराट साहित्यिक व्यक्तित्व भी डायरी को प्रतिदिन के जर्नल की ही तरह लेता है. मगर मेरे पास अपनी अभिव्यक्ति का कोई और माध्यम नहीं था. कहानी लिखने के लिए कुल जमा १९-२० वर्षों के जीवन का अनुभव पर्याप्त नहीं था, इसलिए जो भी मैं सोच सकता था, उसे डायरी में लिखना शुरू किया. लिखने में साहित्यिक परिपक्वता दिखनी चाहिए इस ओर मैं कुछ ज़्यादा ही सचेत था. इस अतिरिक्त सजगता का परिणाम यह हुआ कि वो न डायरी लगती थी न साहित्यिक पाठ. कुछ अजीब सा घालमेल हो गया मेरे विचारों का और सुन्दर शब्दों का. कुल-जमा वह डायरी किसी मूर्ख भावुक का रुदन लगती थी. जब यह विचार और दृढ हुआ तो सर्दियों की एक एक शाम वह डायरी अग्नि को होम कर दी. मगर बतौर पहला प्रयास बुरा नहीं था.डायरी लिखने का यह सिलसिला अगले लगभग १० सालों तक चलता रहा और लिखने का क्रम टूटता बनता रहा. कुछ साल पहले इसपर पूरी तरह से फुल-स्टॉप लग गया. इसकी अब ज़रूरत भी नहीं रह गयी थी. या तो मैं कवितायेँ लिख लेता था या कहानियां और वैसे भी डायरी मुझे हमेशा यही आभास दिलाती थी कि उसमे शिकायत के अलावा वैसे भी कुछ नहीं हो पाता.इस फुल-स्टॉप के पीछे प्रोफेशनल जीवन की अहमियत भी एक कारण थी. मगर पढ़ना हमेशा चालू रहा चाहे मसरूफियत कितनी ही क्यूँ न हो. मुझे लगता रहा है कि पढ़ना लिखने से ज़्यादा ज़रूरी है; मेरे जैसे एक आम व्यक्ति के लिए भी और किसी लेख़क के लिए भी.कोई चार साल पहले दिल्ली से बंगलोर कि ओर कूच किया काम के सिलसिले में और आज तक यहीं हूँ. अब कुछ पढ़ना हो तो किताब खरीदने कि लिए दिल्ली जाने का इंतजार करना पड़ता है; इसलिए साहित्य से (मेरे लिए हिंदी ही साहित्य है) मेरा सम्पर्क और भी कम होता गया. मगर निजी जीवन में दूसरी चीज़ें हावी हो रही थीं इसलिए इस ओर ध्यान ही नहीं गया. करीब दो महीने पहले अंग्रेजों के देश में आना हुआ काम के सिलसिले में. यहाँ आकर हिंदी सुनने के लिए बुरी तरह से तरस गया. ज्यादा किताबें भी नहीं लेकर जा सका था. जब किताबें पढ़ चुका तो करने के लिए कुछ नहीं बचा था सो याहू चैट पर जाना शुरू किया. वहीं संजीत नाम के एक जर्नलिस्ट से मुलाक़ात हुई।मैं कुछ पढ़ने के लिए ढूंढ रहा था या कमसे कम कोई ऐसा व्यक्ति जो साहित्य पर कुछ बात कर सके. तो इन भाई साहब ने मुझे काफी कुछ पढ़ने के लिए दिया. कुछ बातें भी हुईं तो इन्होने बताया अपने ब्लोग के बारे में. मैंने सरसरी तौर पर पढ़ा. अगले दिन फिर पढ़ा और कुछ और भी ब्लोग पढ़े. तबसे मुझे लगातार लगता रहा कि मुझे भी ब्लोग की दुनिया में सक्रिय होना चाहिए. बस उसी का नतीजा ये ब्लोग है.
मैं यहाँ क्यूँ हूँ? क्या करना चाहता हूँ? क्या कहने के लिए आया हूँ? किससे कहने आया हूँ? मुझे यह सब अभी नहीं मालूम. मैं यह भी नहीं जानता की कौन इस ब्लोग को पढ़ेगा या कोई पढ़ेगा भी या नहीं. मगर यह सब सोचना मुझे अभी अनावश्यक लगता है...
"अब आगे जो भी हो अंजाम देखा जायेगा,
ख़ुदा तराश लिया और बंदगी कर ली"
 

प्रत्येक वाणी में महाकाव्य... © 2010

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