मंगलवार, 27 जनवरी 2009

"आबार हाबेतो देखा" मन्ना दे के स्वर

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मन्ना दे जी पर किसी फोरम में चर्चा चल रही थी। सवाल था कि क्या बॉलीवुड में मन्ना दादा की उपेक्षा हुई? कुछ लोगों का मानना था कि उनकी उपेक्षा हुई और कुछ का मानना था कि यह सही नहीं है। हलाँकि मेरा मानना है कि उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार गाने का मौका नहीं मिला मगर साथ ही इस तरह की चर्चा मुझे बचकानी लगी। किसी कलाकार की योग्यता इससे कैसे साबित होगी कि उसने क्या गया? वह तो इससे साबित होगी कि वह क्या गा सकता है या गा सकता था।
उस चर्चा में कुछ लोगों ने कहा कि मन्ना दे जी ने हिन्दी से बाहर बाक़ी भाषाओं में काफी गया है, खासकर बांग्ला में। तब मुझे लगा कि उनके गीत ढूँढने चाहिए। कुछ और ढूंढ़ना शुरू किया तो यह जानकर हैरत हुई कि उन्होंने मलयालम में भी काफी गीत गाए हैं और सबसे ज्यादा हैरत तब हुई जब पता लगा कि वे मुझसे ५-7 किलोमीटर भर की दूरी पर बंगलौर में ही रहते हैं. बाक़ी खोजबीन बाद में। फिलहाल इस खोज की खुशी में यह बांग्ला गीत मन्ना दे जी की आवाज़ में:




शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

ख़ैर मिज़ाजे हुस्न की यारब

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बेहद आसान से शब्दों में कैसे मानी भरे जाते हैं मलिका-ऐ-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर से बेहतर कौन जानता होगा? जो कई बार सायास लगता है वह कितनी सहजता से बेग़म अख़्तर निभा लेती हैं इसका एक नमूना देखिये जिगर मुरादाबादी की इस अत्यन्त खूबसूरत ग़ज़ल में...







नीचे पूरी ग़ज़ल ही दे रहा हूँ। बेग़म अख़्तर ने ग़ज़ल के पाँच शेर गाए हैं।
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन।
कामिल रेहबर क़ातिल रेहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन।
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन।
उमरें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक अक़्ल का बचपन।
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कारे शीशा ओ आहन।
ख़ैर मिज़ाजे हुस्न की यारब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन।
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन।
आ, के न जाने तुझ बिन कल से
रूह है लाशा, जिस्म है मदफ़न।
काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन।

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

मेरी बओ सुरीला

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यह गीत कहीं गहरे से उठता है हालाँकि जोशीला और समुदाय में गाया जाने वाला गीत है मगर किशन सिंह पवार की आवाज़ बहुत दूर ले जाती है। कई बार लगता है आप ख़ुद ही वहां कौतिक में लोगों के साथ नाच रहे हैं।पिताजी को जब ये गीत सुनाया तो बेहद खुश हुए। वे लंबे अरसे से इसे सुनना चाह रहे थे और तकरीबन बीस सालों से ये गीत हमारे घर से गायब था। धन्य हो इन्टरनेट-युग!
गाने की रिकार्डिंग थोड़ी ख़राब है मगर निश्चित ही सुने जाने लायक है।






PS: अभी पोस्ट करने के बाद दोबारा गीत को सुना तो लगा पहले वाला मेरा बयान शायद ग़लत है। गीत और किशन सिंह पंवार की आवाज़ जो दूरी मुझे तय करवाती है वह शायद मेरा व्हिम है और मेरी नितांत निजी कल्पना की वजह से ऐसा होता है। मगर यह तय है कि गाना सुनकर नाचने का जी करता है।

शनिवार, 10 जनवरी 2009

ओरियंटल गीत का जादू

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जैसे-जैसे पश्चिम से लोग आकर भारत में बसते गए, वैसे-वैसे यहाँ की संस्कृति में बहुत कुछ जुड़ता गया। संगीत को ही लें तो आज जो शास्त्रीय संगीत का या लोक संगीत का रूप है उसमें गंगा-जमुनी संस्कृति का अद्भुत सामंजस्य है। दूसरी ओर नौटंकियों और पारसी थियेटरों से निकलकर आई फिल्मों में संगीत हमेशा महत्वपूर्ण रहा और आज भी उसके बिना फिल्में दिखाई नहीं पड़तीं।
हर फ़िल्म के विषय और देशकाल को देखते हुए उसके लिए संगीत बुनना चुनौतीपूर्ण काम रहा होगा और हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कहा जाए कि इसके लिए संगीतकारों ने दुनियाभर से खुराक प्राप्त की। अक्सर संगीतकारों पर "इधर की मिट्टी, उधर का रोड़ा" जोड़ने का आरोप लगता है। फिल्मी संगीत कई बार सीधा-सीधा किसी पश्चिमी या किसी भी बाहरी गीत या संगीत से प्रभावित होता है या उसकी नक़ल होता है। मगर जो अन्तर मुझे आज और बीते कल की नक़ल में आता है, वह आज उस नक़ल या "प्रभाव" के हिंदुस्तानीकरण का अभाव है।
अरबी-फ़ारसी संगीत का भी हमारी फिल्मों पर खासा प्रभाव पड़ा है और यह सिर्फ़ वहां प्रचलित वाद्ययंत्रों के प्रयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि कई बार कोई गीत वहां के संगीत की संतान लगता है। प्रभाव की बात करें तो यह पुराना ओरियंटल गीत उम कुल्तहुम की आवाज़ में सुनिए और बताइये कि इसका खूबसूरती से भारतीयकरण कहाँ हुआ...











यह खूबसूरत गीत गाने वाली उम कुल्तहुम ३१ दिसम्बर १९०४ को मिस्र में पैदा हुईं थीं। उन्हें द स्टार ऑफ़ द ईस्ट कहा जाता था। १९७४ में उनकी मृत्यु के बाद आज ३०-३५ सालों बाद भी उन्हें अरब जगत की सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध गायिका मना जाता है।

सोमवार, 5 जनवरी 2009

झुक-झुक देखें नयनवा

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शास्त्रीय संगीत की समझ अनिवार्य है ऐसा हमें नहीं लगता। समझ हो तो माशा-अल्लाह, न हो तो भी ठीक। ऐसे कई लोगों से साबका पड़ा है जिन्हें समझ नहीं मगर वे उसका आनंद लेना जानते हैं।

खैर हम यहाँ कोई शुद्ध शास्त्रीय संगीत नहीं लगा रहे, इसलिए यह चर्चा बेमानी है। बेग़म अख़्तर का राग पूर्वी में गाया दादरा है। सुनिए और मस्त हो जाइये।




 

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