शनिवार, 7 जून 2008

फैशन बलात्कार और कुंठा - 2

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प्रशांत की टिप्पणी से पूरी तरह से सहमति रखता हुँ। परिवेश अत्यंत ज़रूरी है और हमारे समाज में कुंठा इतनी ज़्यादा होने के पीछे परिवेश की भिन्नता एक अहम कारण है। मैंने पहले लेख में प्रत्यक्ष रूप से इस मुद्दे को नहीं छुआ है। यहाँ पर इस बारे में विस्तार से चर्चा करूंगा।

आज से लगभग 22 साल पहले तक दिल्ली के सरकारी स्कूलों में संयुक्त शिक्षा प्रणाली होती थी। लड़के-लड़कियाँ एक ही कक्षा में बैठते थे। बाद में यह प्रणाली धीरे-धीरे समाप्त कर दी गयी। जब यह प्रणाली प्रचलन में थी, तब भी लड़के कक्षा के एक ओर बैठते थे और लड़कियाँ दूसरी ओर। वे नाममात्र को एक साथ पढ़ते थे; वास्तव में उनकी मंडलियाँ अलग-अलग होती थीं और वे शायद ही कभी एक दूसरे से बात करते थे। यह वर्गीकरण क्यों? कक्षा में जो विभाजन की रेखा खिंची जाती थी उसकी पैठ वयस्क हो रहे मस्तिष्क में बहुत गहरी खिंच जाती थी। यह विभाजन मात्र अध्यापकों का या शिक्षा-प्रणाली को चलाने वालों का बनाया हुआ नहीं था, वरन इसकी जड़ें समाज में हर जगह फ़ैली हुईं हैं। यह परिद्रश्य आज 22 साल बाद भी बदला नहीं है, हालांकि बड़े शहरों में यह विभाजन कुछ कम हुआ है (कुछ ही कम हुआ है), किंतु पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।

मैंने स्कूल में जो एक बार भोगा है उसका कारण मुझे कुंठा से उपजी विकृत मानसिकता ही लगती है। यह १९९० की बात है जब मैं दसवीं कक्षा में था। मेरे एक सहपाठी ने कक्षा पर एक कविता लिखी और उसमें लगभग सभी सहपाठियों की विशेषताओं का वर्णन किया। हम कई दिनों तक उस कविता से खेलते रहे और उत्साहित होते रहे। एक दिन वह कविता गलती से डेस्क पर छूट गयी और अगले दिन सुबह जब वहां लड़कियों की कक्षा चल रही थी तो वो कविता किसी लड़की के हाथ लग गयी। कविता काफी रोचक थी इसलिए लड़कियां प्रभावित हो गयीं। उन्होने बोर्ड पर एक सन्देश लिख छोडा कि कविता रोचक है, कृपया कवि अपना नाम बताये। सहपाठी, जिसने यह कविता लिखी थी, बहुत उत्साहित हो गया और उसने लड़कियों को थोड़ा और प्रभावित करने की सोची। सीधा सीधा अपना नाम देने के बजाये उसने कोड-वर्ड्स का इस्तेमाल किया और एक पर्चे में अपना और मेरा नाम लिख छोड़ा। उसी शाम एक अन्य सहपाठी ने किसी लड़की के नाम "लक्ष्मी मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ" ब्लैक-बोर्ड पर लिख दिया और जानबूझकर अपना नाम नहीं लिखा। बदकिस्मती से कोई अध्यापक उस शाम सारी कक्षाओं निरीक्षण कर रहे थे और वे हमारी कक्षा में आये तो उन्हें पहले ब्लैक-बोर्ड पर लिखा हुआ "लक्ष्मी मैं तुमसे प्यार करता हूँ" दिखा और उसके बाद दिखा डेस्क पर पड़ा हुआ एक पर्चा। उन्होने वह पर्चा जाकर मुख्याध्यापक महोदय के हवाले कर दिया। अगले दिन जब हम पुस्तकालय में बैठे थे तो हम दोनों के नाम का बुलावा आया। उसके बाद शुरू हुआ ताबड़तोड़ थप्पड़ो का सिलसिला। हमे कुछ कहने की कोई आज्ञा नहीं थी। चुपचाप मार खाने के लिए बुलाया गया था। यहाँ एक बात गौर करने लायक हैं। यदि उन्होने यह मान भी लिया कि "लक्ष्मी मैं तुम्हे प्यार करता हूँ" हमने ही लिखा था तो भी इसमें पीटने की क्या वजह थी? संभवतः वे यही सन्देश देना चाहते थे कि आपको प्रेम करने की आज्ञा नहीं है, कि आपको "मोरल" सिखाना भी हमारा ही काम है किन्तु मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मोरल की शिक्षा कैसे लूँ जो बात-बात पर हाथ छोड़ देता हो और खुद हरामखाने जैसी गालियाँ देता हो? और मज़ेदार बात यह कि उन्होंने यह जानने की ज़हमत भी नहीं उठाई कि इस बारे में हमारे माता-पिता को सूचित किया जाए। वे यह मानकर चल रहे थे कि यह जो तथाकथित समाजिक नियम है उसके बाहर कोई नहीं है और हमारे माता-पिता की राय यदि इस बारे में कुछ और हुई भी तो भी समाजिक नियम सर्वोपरि हैं और किसी की निजी राय उनके अपने बच्चों की परवरिश के सन्दर्भ में कोई मायने नहीं रखती। बहरहाल वे यह कहना चाहते थे कि सामाजिक नियम के अनुरूप आपको विपरीत सेक्स से तबतक दूर रहना है जबतक कि आपका विवाह न हो जाए। उससे पहले ऐसी कोई चेष्टा भी अपराध है। हम बच्चों के मन में कोई कुंठा नहीं थीं। यदि कुछ रहा भी होगा तो वह होगी सरल जिज्ञासा किंतु उन महोदय की कुंठायें हमारे चेहरे पर थप्पड़ बनकर बरस रही थीं।

जब आप एक लड़के और लड़की को ऐसा परिवेश देंगे जिसमें वे न सिर्फ़ एक दूसरे के शारीरिक भूगोल से अपरिचित रह जायें, बल्कि साथ ही उन्हे विपरीत सेक्स की स्थिति को भावनात्मक और सामाजिक तौर पर भी समझने का अवसर न मिले तो परिणाम घातक ही होंगे न? इन्ही लड़के-लड़कियों की एक दिन अचानक शादी कर दी जायेगी और कहा जायेगा कि अब साथ-साथ रहो; मगर कैसे? जो दो लोग एक दूसरे को न शारीरिक तौर पर जानते हैं, न मानसिक और भावनात्मक तौर पर वे एक साथ कैसे पूरा जीवन बिता देंगे? और क्या ऐसे में दुर्घटनाओं या गलतियों की सम्भावनायें ज़्यादा नहीं हैं?
विपरीत सेक्स से ये दूरी कई लोगों में विकृति पैदा कर देती है। हालांकि इस तरह की विकृतियों के पीछे विपरीत सेक्स से दूरी ही अकेला कारण नहीं है; वजह भिन्न-भिन्न हो सकती हैं क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार और बलात्कार विकसित पश्चिमी देशों में भी होते हैं और ऐसे घरों में भी होते हैं जहाँ महिलायें आत्म-निर्भर हैं। पिछले दिनों एक व्यक्ति ने दक्षिण लंदन में एक १५ वर्षीय किशोरी अर्सेमा डाविट का वध कर दिया। ऐसा करने के पीछे कोई कारण नहीं था। सच क्या है यह तो पड़ताल के बाद ही पता चलेगा, किन्तु प्राइमा-फेसी सबूतों के आधार पर यही लगता है कि वह व्यक्ति किसी न किसी मानसिक रोग से पीड़ित था। इस रोग के पीछे किसी भी तरह कि कुंठा या हीन-भावना हो सकती है।

चलिए अब लौट चलते हैं अपने देश भारत की ओर क्योंकि यहाँ की समस्याएं भिन्न और बुनियादी हैं। स्कूल से बाहर निकलते ही लड़कों में एक उत्साह भर जाता है और लड़कियों में एक भयमिश्रित रोमांच। कारण तो सर्वज्ञात है। विपरीत सेक्स से मिलने की अधिकारिक छूट मिल जाती है हालांकि यह छूट कॉलेज तक ही सीमित रहती है, घर तक नही जाती, लड़कियों के लिए तो कतई नहीं। (यह बात मैं पूरे भारत के संदर्भ में कह रहा हूँ मात्र दिल्ली या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के लिए नहीं जहाँ अब स्थिति पहले से कुछ हद तक बदल चुकी है)। मेरे कई मित्र कॉलेज में लड़कियों के सामने पड़ने मात्र से घबरा जाते थे और दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लड़के थे जो लड़कियों को उपभोग की वस्तु समझते थे। आत्मविश्वास सिर्फ दूसरे तरह के लोगों में भरा हुआ था और पहले तरह के लड़के अपनी तमाम शराफत के बावजूद काफी ठस थे। मेरा अपना एक भला मित्र आजतक स्वीकार करता है कि उसने कॉलेज में सिर्फ ३-४ बार लड़कियों से बात की होगी। एक मजेदार बार याद आती है। कॉलेज में हमारी ६ लोगों की एक मंडली होती थी जिसमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं। एक लड़की जाटनी थी और बहुत सम्पन्न परिवार से होने के बावजूद भी उसका व्यवहार जाटों की तरह आक्रामक था (जाट भाई अन्यथा न लें। मेरे आज भी बहुत से जाट मित्र हैं।)। उसकी ओर किसी की भी आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। तो हुआ यूँ मंडली के बाकी के तीनों सदस्य एक-एक करके दूसरी लड़की के इश्क में पड़ते रहे। यह सिलसिला उसके एक साल बाद कॉलेज छोड़कर जाने तक चलता रहा, यह जानते हुए भी कि उस लड़की की पारिवारिक स्थिति ऐसी है कि यदि वह चाहे तो भी प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ेगी। इस उम्र में आकर्षण होना स्वाभाविक भी है और ठीक भी। जैसाकि तालास्तोय ने कहा था कि यदि कोई लड़की अपना १५वां मना रही है तो वह ज़रूर चाहेगी कि कोई उसे छुए, प्यार करे। यदि ऐसा नहीं है तो उस लड़की में अवश्य ही कुछ ग़लत है। यह बात इसी तरह लड़कों पर भी लागू होती है। किन्तु कॉलेज में आते ही लोग जैसे एक होड़ में लग जाते हैं और जल्द से जल्द हर कोई किसी न किसी तरह के संबंध में पड़ना चाहता है। यदि इसे कुंठा न भी कहा जाये तो भी एक प्रकार की हीनता तो है ही इसमें। यह हीनता जन्म क्यूँ लेती है? क्योंकि १८ सालों तक उनको ऐसा परिवेश दिया गया जिसमें उन्हें एक दूसरे से दूर रहना सिखाया गया और १८ साल का होते-होते उन्हें समझ आने लगता है कि उन्हें सही नहीं सिखाया गया है। जुरासिक पार्क में एक चरित्र कहीं कहता है कि जीवन तो अपना रास्ता खोज ही लेता है। क्या यह बात स्त्री-पुरुष के अनादिकाल से चले आ रहे संबंध पर भी सटीक नहीं बैठती? जो प्रकृति ने बनाकर दिया है आप कितने हजारों सालों से उससे लड़ रहे हो और वह फिर भी लौट-लौट आती है। आप उसे कैसे मिटा दोगे? मुझे अचरज होता है कि सेक्स को संदिग्ध मानने वाला भारत हर साल एक आस्ट्रेलिया की जनसंख्या पैदा कर लेता है। क्या यहाँ भी कुंठा ही तो नहीं है? जिसे १८ वर्षों तक रोका गया वह मौका मिलते ही फूट-फूटकर बहने लगता है।

कई बार सोचता हूँ कि इस संसार में सभी जीव-जंतुओं का मिलन का समय तय होता है मगर एक मनुष्य ही ऐसा जीव है जो बारहों मास सेक्स से ओत-प्रोत रहता है। ऐसा क्यूँ है? यदि आप कालाहारी के जंगलों में जाएं तो पायेंगे कि वहाँ की प्रजातियाँ, जिन्हें "बुशमैन" कहा जाता है, आज भी पाषाण-युग में जी रही हैं। वे लोग मात्र गुप्तांगों को ढकते हैं और जो दिख रहा होता है उसे ललचाई नज़रों से नहीं देखते। वे सेक्स और विपरीत सेक्स को इतनी सहजता से कैसे लेते हैं? संभवतः उन्हें यह नहीं सिखाया जाता कि विपरीत सेक्स से दूर रहना चाहिए। वे संभवतः पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ते हैं। वे शायद एक दूसरे के पूरक होते हैं।किन्तु अपना यह देश जिसने दुनिया को कामसूत्र और कोकशास्त्र दिये, खुद ही अपना रास्ता भटक गया। ऐसा खुला हुआ हमारे समाज को अचानक क्या हुआ जो इसमें ऐसी हीनता भर गयी और नारी या तो प्रताड़ना की या उपभोग की वस्तु बन गयी? उससे संबंधित किसी भी परिवर्तन के नियामक पुरुष बन बैठे जो आजतक यह भी निर्धारित करना चाहते हैं कि वह क्या पहने और क्या न पहने और कब पहने और कब उतारे।

गुरुवार, 5 जून 2008

फैशन बलात्कार और कुंठा

5टिप्पणियां
एक ब्लोग पर टिप्पणियों के आकार के दो लेख फैशन और महिलाओं पर पढ़े और साथ ही पाठकों की टिप्पणियां भी पढीं। मेरे विचार इस बारे में कुछ प्रगतिशील हैं मगर फैशन को व्यवसाय की हद तक देखना सही नहीं समझता। जो लोग यह कहते हैं कि लड़कियों को कम फैशन करना चाहिए वे लोग ज़रूर सामने से गुज़रती हुई लड़कियों की छाती को टकटकी लगाये देखते होंगे इसमे कोई कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। अगर वे ऐसा ना भी करते हों तो भी इतना तो ज़रूर है की उनके स्वंय के मन में नारी को लेकर या यूं कहें कि सेक्स को लेकर कई तरह की कुंठायें होंगीं जो बाहर नहीं आ पातीं या वे इतने भीरू हैं कि इस बात को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाते और अपनी कुंठायें महिलाओं कि ओर बढ़ा देते हैं। बलात्कार वास्तव में अपनी कुंठा महिला की ओर बढ़ाना नहीं तो और क्या है?

पहले बात करें फैशन की। फैशन के विभिन्न आयाम हो सकते हैं। मतलब फैशन की बात किस सन्दर्भ में हो रही है। रितु कुमार यदि एक एक्सक्लूसिव और डिजाइनर सलवार-कुरता बाज़ार में लेकर आती है जो कि भारतीय मानसिकता पर खरा उतरता है तो भी वह फैशन ही कहलायेगा और यदि य्वेस सें लौरें कोई बिकनी बाज़ार में लाते हैं तो भी वह फैशन ही कहलायेगा। असल बात है कि ये तथाकथिक लोग किस फैशन कि बात कर रहे हैं? साफ शब्दों में कहें तो वे कहना चाहते हैं कि चूँकि लड़कियां अपना अंग उघाड़ती हैं इसीलिए उनके साथ ऐसा व्यवहार होता है। मगर क्या इसमें रंचमात्र भी सच्चाई है? फैशन के सन्दर्भ में भारत का पेरिस कहे जाने वाले बंगलोर में दिल्ली के मुकाबले कम बलात्कार क्यों होते हैं? मुम्बई महिलाओं के लिए दिल्ली की अपेक्षा इतना सुरक्षित क्यों है? और क्या बलात्कार का अगर फैशन से कोई सम्बन्ध है तो छोटे छोटे गावों में बलात्कार क्यों होते हैं? क्या वहाँ ज़्यादा फैशन किया जाता है? क्या बलात्कार उन्ही लड़कियों के साथ होता है जो ज़्यादा “फैशन” करती हैं? वास्तव में किसी को फैशन करने से मना करना तो कुछ यूं कहने जैसा है कि हम अपने आपको रोक नहीं सकते इसलिए बेहतरी इसी में है कि आप अपने आप को रोक लो कुछ भी ऐसा करने से जिससे हमारे सब्र का बाँध टूट जाए।

बलात्कार और महिलाओं की ओर बढ़ते हिंसक रवैये की कई वजहें हो सकती हैं। सहनशीलता का अभाव और सामाजिक परिवेश में बदलाव इसके दो प्रमुख कारण हो सकते हैं।पहले सहनशीलता के अभाव की बात करें। जैसा कि हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि "पहले लोग आपपर हँसते हैं, फिर आपका विरोध करते हैं और अंततः आपको स्वीकार कर लेते हैं।" यह बात कमोबेश फैशन पर भी लागू होती है। जब १९४६ में फ्रांस के लुईस रेअर्द और जक्क़ुएस् हेइम ने बिकनी बाज़ार में पेश की तो उसका खुलकर विरोध हुआ। स्पेन, पुर्तगाल और इटली में इसपर आनन-फानन में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लोग दुविधा में थे इस तथाकथिक कपड़े के टुकड़े को लेकर। मगर इस टुकड़े ने फैशन को नया आयाम दिया। बिकनी का विरोध अगले कम से कम १५ सालों तक जारी रहा जब "modern girl" पत्रिका ने लिखा, "तथाकथित बिकनी पर शब्द खर्च करना कतई बेमानी है क्यूंकि यह तथ्य कल्पना से परे है कि कोई भी व्यवहार-कुशल और शालीन लड़की कभी इसे पहनेगी।“ बहुत ही खुला हुआ समाज कहे जाने वाले अमेरिका में तो इसका विरोध और भी बाद तक जारी रहा। मगर अंततः इसे अपना लिया गया। और आलम यह है कि योरोपे या अमेरिका में यदि कोई लड़की आपको बिकनी में दिखाई देती है तो भी आप उसकी ओर ललचाई नज़रों से नहीं देखते क्योंकि यह इतनी साधारण सी बात है। मगर हमारे यहाँ लोग आंखों की बजाये एक्सरे-मशीन लगाकर चलते हैं और कपडों के भीतर भी सबकुछ देख लेना चाहते हैं।

कोई यह न कहे कि बिकनी की बात करना कतई बेमानी है भारतीय सन्दर्भ में, क्योंकि प्राचीन भारत में हमारी स्त्रियाँ जो कंचुकी पहनतीं थीं वह बिकनी के उपरी हिस्से सरीखा ही होता था। भारतीय साड़ी जिसमें पेट प्रदर्शन ज़ाहिर है और हमें बिल्कुल सामान्य लगता है उसे युरोपे कि महिलाएं बहुत आश्चर्य से देखती हैं क्योंकि वहाँ पर पेट दिखाना सेक्सी दिखने का प्रयास माना जाता है। कुल-जमा बात है सोच की। क्या आज से हजार साल पहले हमारे यहाँ पर्दा-प्रथा होती थी? क्या वसंतोत्सव के त्यौहार पर युगल नहीं बनते थे? क्या उस समय हमारी स्त्रियों के परिधान में अंग-प्रदर्शन आज से ज्यादा नहीं था? बिकनी सरीखे कपडों का प्रचलन आज से १७०० साल पहले ज्ञात है। एक ओर लोग प्रगतिशीलता की बात करते हैं और दूसरी ओर बदलाव से इस कदर घबराते हैं कि बगैर सोचे-समझे हर चीज़ के विरोध पर आमादा हो जाते हैं।

एक हिन्दुस्तानी सज्जन एक बार जर्मनी में अपने मित्र के साथ घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि एक युगल पार्क के किनारे बेंच पर तनोरंजन में संलग्न हैं। वे कुछ देर टकटकी लगाये हुए उधर देखते रहे फिर एकदम से बोले, "छी! कितना सेक्स भरा है इनके मन में।" उनके मित्र बोले, "सेक्स उनके नहीं, आपके मन में भरा हुआ है, तभी तो आप असहज हो रहे हैं।" अथार्थ उनके मन में कुंठा थी और प्रेमी युगल बिल्कुल सहज थे। यहाँ ओशो को उद्धृत करना भी संभवतः ग़लत नहीं होगा। "धर्म ने सेक्स को ज़हर देकर मारना चाहा। सेक्स मरा नहीं, ज़िन्दा रहा और अब वह ज़िन्दा भी है और ज़हरीला भी।" अगर हम भारत कि ओर देखें तो हमारे यहाँ दुविधा यह है कि हम किसी भी ऐसी चीज़ को जो महिलाओं से संबंधित हो आसानी से अपना नहीं सकते। यहाँ मैं सिर्फ़ बिकनी की बात नहीं कर रहा। और भी कई उदाहरण हैं जो दिए जा सकते हैं। जैसे कि दसवें दशक के पूर्वार्ध में बगैर दुपट्टे के कुर्तों का फैशन चला और इसने तेज़ी से गति पकड़ी। मेरे अपने बड़े भाई का मानना था कि दुपट्टा तो ज़रूर होना चाहिए चाहे जेब में लेकर चलना पड़े। मगर आज ऐसे कुरते पहनना आम बात हो गई है।

दूसरा प्रमुख कारण मेरी समझ में अपने सामाजिक परिवेश से कटा हुआ आदमी है। उदाहरण के तौर पर पहले दिल्ली को लेते हैं। दिल्ली एक ऐसा शहर है जहाँ का अपना बाशिंदा कोई नहीं है। सब दूसरी जगहों से आए हुए लोग हैं। जब लोग अपने परिवेश से कटकर नयीं जगह जाते हैं तो एक तरह के सामाजिक बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें यह खतरा नहीं रह जाता कि जो आगे लड़की चल रही है कहीं जान-पहचान वाले की बेटी या बहन ना हो। मैं अक्सर देखता हूँ कि मेरे गाँव में लड़कियां इतनी सुरक्षित और आत्म-निर्भर क्यों हैं? (मेरा गाँव नैनीताल से आगे अल्मोड़ा में है)। क्या वे वही रह पाएँगी यदि उन्हें दिल्ली में छोड़ दिया जाए? फिर में सोचता हूँ कि मेरे गाँव के लड़के कभी लड़कियों को छेड़ते क्यों नहीं? यदि छेड़ते भी हैं तो मर्यादा क्यों नहीं पार करते? यदि उन्हें दिल्ली में छोड़ दिया जाए तो क्या वे वही रह पायेंगे जो वे गाँव में हैं? मेरे दोनों सवालों का जवाब हमेशा ना ही होता है। मैं पिछले कुछ सालों से बंगलोर में हूँ और यहाँ होने वाले सामाजिक बदलाव का साक्षी रहा हूँ। पुलिस बार बार रोती है कि बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही हैं। मुझे लगता है कि इसके पीछे बंगलोर जैसे छोटे से कसबे का तीव्र शहरीकरण सबसे प्रमुख कारण है। अब पहले जैसा नहीं रह गया है बंगलोर। लोग आस-पास के लोगों को नहीं जानते। शहरीकरण ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया है, पड़ोसी को पड़ोसी से अनजान कर दिया है। एक ओर जहाँ ऐसे वातावरण से हम कई रूढियों से मुक्त हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर कई प्रकार के असंतुलनों में जकड़ भी जाते हैं। फैशन का बढाव इसका एक पक्ष है और महिलाओं के प्रति अपराध दूसरा।

अब देखना यह है कि इस विचारधारा में किस किस का योगदान है। क्या यह सिर्फ़ चंद लोगों का सोचना है या प्रशासन भी ऐसा ही सोचता है? याद आता है कि कुछ महीनों पहले गाज़ियाबाद पुलिस ने मीडिया को बुलाकर कई प्रेमी-युगलों को केमेरा के सामने खड़ा कर दिया था। वे यह संदेश देना चाहते थे कि जिन लोगों को भारत के संविधान ने वोट देने का अधिकार दिया हुआ है उन्हें इस बात कि तमीज़ नहीं कि अपना जीवन साथी कैसे चुना जाए या किसके साथ प्रेम किया जाए और किसके साथ नहीं। पुलिस पुलिस न रहकर मोरल पुलिस बनने पर उतारू हो गई। यह कोई पहली घटना नहीं थी। कुंठा सर्वव्यापी है। मुझे याद है कि में विद्यालय में था और कुछ दोस्तों के साथ सफदरजंग का मक़बरा देखने गया जोकि मेरे विद्यालय के बगल में ही था। हमें भीतर जाने के लिए टिकट नहीं दिए गए और कहा गया कि किसी बड़े आदमी को अपने साथ लाइए तभी भीतर जाने दिया जाएगा। खुशकिस्मती से एक बुज़ुर्ग हमारे पीछे खड़े थे जिन्होंने फट से कहा कि ये बच्चे मेरे साथ हैं। खैर जब अन्दर गए तो मक़बरा देखते देखते पार्क में बैठे युगलों पर नज़र पड़ी और समझ में आया कि क्यों हमें भीतर नही जाने दिया जा रहा था। सही ग़लत के फेर में न पड़ा जाए तो यहाँ एक बात गौर करने लायक थी कि कुंठा सभी के मन में थी, चाहे प्रेमी हों या टिकट देने वाला व्यक्ति या फ़िर मक़बरे में जाने वाले लोग और यह कुंठा एक दूसरे को किस हद तक प्रभावित कर रही थी।
 

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